मुनिराजों के अट्ठाइस मूलगुण — ये उनके धर्म हैं कि संसार?

Rajat Jain
Jain Musings
Published in
5 min readJan 3, 2023

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दिगंबर जैन मुनिराज, वीतरागी संत जैन दर्शन के अमूल्य अंग है। णमोकार मन्त्र (पंच परमेष्ठी नमस्कार मन्त्र) के पांच में से तीन परमेष्ठी (आचार्य, उपाध्याय, साधु) दिगंबर मुनिराज है। वे चलते फिरते सिद्ध भगवान है, सिद्धों के लघुनन्दन है, शीघ्र ही केवली होकर भगवान होने वाले है, तथा संसार में रहते हुए भी संसार से अतिविरक्त है।

ऐसे मुनियों की, जैन दर्शन के स्तम्भ की, पहचान होती है उनके २८ मूलगुण से — पांच महाव्रत, पांच समिति, पाँच इंद्रियों पर विजय, छह आवश्यक, और सात अन्य गुण। ये २८ मूलगुण मुनिराजों के अभिन्न अंग है, अगर इनमें से एक गुण का भी छेद हो जाये, तो मुनिदशा का छेद हो जाये। तो प्रश्न ये उत्पन्न होता है कि मुनियों के २८ मूलगुण क्यों होते है? क्या ये २८ मूलगुण मुनीपना है? क्या २८ मूलगुणों के पालन से ही सिद्धत्व की प्राप्ति होती है? मुनिदशा में और सिद्ध दशा में कारण-कार्य नियम (cause and effect) क्या है?

मुनिराज की दशा

मुनिदशा का फल सिद्ध दशा है। सिद्ध होने का मार्ग केवल मुनिदशा है, उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। अर्थात मुनियों में सिद्ध के गुण अंशतः वर्तमान में ही विद्यमान है जो यथायोग्य सिद्ध की ओर बढ़ते है। तो प्रश्न यह है कि सिद्धों के गुण (स्वरूप) क्या है?

परमार्थः सिद्ध भगवान समस्त मोह-राग-द्वेष से रहित, मात्र — और मात्र — अपने स्वभाव में लीन रहते है। अपने स्वभाव (अर्थात अपने चैतन्य स्वभाव) के आश्रय के अतिरिक्त उनकी कोई क्रिया नहीं है, उनका उपयोग केवल और केवल उनकी अपनी आत्मा में — अर्थात अपने में — ही प्रतिसमय वर्तता है।

इसी प्रकार मुनियों में भी उग्र रूप से — लेकिन अपूर्णता से — सिद्धों समान ही शुद्धता प्रवर्तती है। इसी को शुद्ध उपयोग कहते है — वह अवस्था जिसमें मुनिराज अपनी आत्मा में लीन होकर सिद्धों समान आत्मा का आंशिक (लेकिन उग्र) आनंद भोगते है। चूंकि मुनिराज अभी भी संसारी है, संसार से विरक्त नहीं हुए है, उनमें आंशिक रूप से संसार अभी भी वर्त रहा है। और यह आंशिक संसार ही है जो २८ मूलगुण के रूप में दिखता है। ये बात शायद अटपटी लगे इसलिए इसको समझने के लिए दृष्टांत लेते है।

दृष्टांत — पंखा (सीलिंग फैन)

सभी के घरों की छत पर पंखा होता है जो गर्मियों में अत्यंत उपयोगी होता है। छत के पंखे के चलने को अगर संसार उपमा दें, तो विचार करते है कि पंखा क्यों चलता है, कैसे बंद होता है और वास्तव में पंखा क्या है?

पंखा मुख्यतः दो भागों में विभाजित है — (१) मोटर और (२) बाह्य अंग अर्थात पत्तियां। वास्तव में तो पंखे के बाह्य अंग में उसकी स्वयं की क्रिया है ही नहीं — वो तो मात्र मोटर के आधीन चलता है। अगर उस पंखे से मोटर हटा दें, तो पंखे का बाह्य भाग धूल-मिट्टी के अलावा कुछ नहीं है। पंखा तो वास्तव में केवल मोटर ही है।

अब चलती हुई मोटर को कैसे रोका जाता है? क्या हम बाहर से अपने दोनों हाथों से चलते हुए पंखे की पत्तियों को रोकने का प्रयास करते है? उससे तो हाथ कट जायेगा। अगर कुछ समय के लिए पंखा को रोक भी पाए तो भी बाह्य बल हटाते ही पंखा पहले समान ही गति से चलने लगेगा। पंखे को रोकने के लिए कोई बाह्य बल नहीं चाहिए, उसे रोकने का उपाय है वो स्विच को दबाना जिससे मोटर रुक जाये। मोटर रुकने के बाद पंखा अपने आप रुक जायेगा।

तो स्विच बंद होने के बाद क्या होता है? पंखा कुछ देर के लिए तो चलता हुआ दिखताहै और उसकी गति मंद से मंदतर से मंदतम होते हुए अंततः रुक जाती है। मोटर तो रुक ही गयी है।

पंखों की गति जो कम होती है — वास्तव में वह पंखे के बंद होने का लक्षण है या मोटर बंद होना लक्षण है? पंखे की गति कम होना तो मात्र उसकी बची हुई निर्बल अवस्था है जो अपने जड़ (source) बिना कुछ देर और फड़कती है।

संक्षिप्त में विचारे तो पंखा वास्तव में मोटर है, वे बाह्य पत्तियां नहीं। पंखे को रोकने का उपाय मोटर की शक्ति को जड़ से बंद करना है (स्विच बंद करके) ना कि बाह्य शक्ति लगाकर उसे कृत्रिम रूप से बंद करना। और बंद होने के पश्चात भी पंखा कुछ समय तक निर्बल रूप से घूमता रहता है — वह अल्प काल के लिए घूमना पंखे के बंद होने का स्वरुप नहीं है, वह तो वास्तव में पंखे की घूमने रूप बची हुई शक्ति का संकेत है।

सिद्धांत

मुनिराज का स्वरुप भी ऐसा ही है। उनमें सिद्धों समान उग्र (लेकिन अपूर्ण) शुद्धता आ गयी है, अर्थात उनकी अधिकाँश प्रवृत्ति उनकी स्वयं की आत्मा के आश्रित हो ही गयी है। लेकिन चूंकि वे सिद्ध समान परिपूर्ण नहीं हुए है, इसलिए अल्प संसार रुपी प्रवृत्ति अभी विद्यमान है।

मुनिराजों की पहिचान भी उनकी आत्मा के आश्रय रूप प्रवृत्ति से है। यह प्रवृत्ति उग्रपने से है, जहाँ वे निरंतर आत्मा में लीन हो जाते है, आत्माश्रित आनंद का अनुभव करते है। लेकिन उनका उपयोग अधिक समय के लिए आत्मा के अंदर नहीं रह पाता है। शास्त्र के आधार से अगर कोई जीव मात्र एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) तक आत्मा के उपयोग में लीन रहे, तो मुनिदशा से पार केवलज्ञानी हो जाये, अर्हन्त हो जाए। इसलिए मुनि, जो कि अभी भी सांसारिक है, अपना उपयोग आत्मा में ४८ मिनट से कम ही रख पाते है, और फिर वह उपयोग आत्मा से हटकर बाह्य पदार्थों के आश्रित होता ही है। जो आत्माश्रित उपयोग है, वह सिद्ध समान प्रवृत्ति है, जो बाह्य उपयोग है (अर्थात २८ मूलगुण), वह स्विच बंद होने के बाद मोटर की जैसी अवस्था होती है, वैसी है।

आगे सूक्ष्मता से विचारें, तो २८ मूलगुण शारीरिक क्रिया नहीं है वरन मुनियों के अंदर आने वाले मूलगुण रुपी भाव है (जैसे पंखा वास्तव में मोटर है, उसकी बाह्य पत्तियां नहीं) और ये विकारी भाव, सांसारिक भाव है। इसलिए मुनिराज के ईर्या समिति का पालन होते हुए भी उनके पैरों के नीचे जीव आकर उनका घात हो जाये तो उनके मुनिधर्म में कोई दोष नहीं लगता है।

पंखे की ही तरह मुनिराज संसार को बाह्य प्रवर्तन (मूलगुण रुपी भाव) से नहीं आतंरिक प्रवर्तन (स्विच दबाकर, मूल से) से ख़त्म करते है। और यह आत्माश्रित आतंरिक प्रवर्तन ही मुनिधर्म है — सिद्धत्व का कारण है, मूल गुण तो पंखा बंद होने के बाद की बची हुई गिरती हुई गति समान ही बचे हुए संसार और अपूर्णता का प्रतीक है, धर्म का नहीं। विचार करें, अगर मूलगुण ही धर्म होते तो ये सिद्धों के क्यों नहीं है? क्या सिद्ध अधर्मी है या वे धर्म की पराकाष्ठा है?

इन मूलगुणों को मुनि का धर्म नहीं, बचा हुआ संसार कहकर वास्तव में मुनि की निंदा नहीं, वरन उग्र बहुमान किया है। अहो! उनकी कैसी आत्माश्रित प्रवृति है, जो उनकी बाह्य प्रवृत्ति मात्र इन मूलगुणों के रूप में बची हुई है, बाकी संसारी जीवों समान स्त्री/पुरुष, कुटुंब, परिवार, व्यापार, धंधे, इन्द्रियभोग, मान, लोभ, धन आदि के जंजाल रूप नहीं! ऐसी अद्भुद, अलौकिक, आत्मिक प्रवृत्ति परम वंदनीय है और उनके धारक चलते फिरते सिद्ध समान मुनिराजों को कोटि कोटि वंदन।

उपसंहार

अंत में मूल प्रश्नों पर पुनः विचार करते है —

सर्वप्रथम तो मुनिराज के २८ मूलगुण शारीरिक क्रिया नहीं, उनके अंतरंग के मूलगुण रुपी भाव है।

१. मुनि के २८ मूलगुण क्यों होते है? — क्योंकि उनमें सिद्ध समान आत्माश्रित प्रवृत्ति तो है, लेकिन आंशिक। उनका उपयोग पूर्णतः आत्मा में नहीं रह पाता। बाह्य प्रवृत्ति मूलगुण रूप में होती है।

२. क्या ये मूलगुण मुनीपना है? — नहीं, वह उनका बचा हुआ संसार है।

३. क्या केवल मूलगुण के पालन से सिद्धत्व की प्राप्ति होती है? — नहीं, अपितु व्यवहार से तो जब मूलगुण छूट जाए, तब सिद्धत्व की प्राप्ति होगी! अर्थात निश्चय से आत्मा का आश्रय इतना उग्र हो जाए कि बाह्य प्रवृत्ति (मूलगुण) हो ही ना, तब सिद्धत्व की प्राप्ति होगी।

४. मुनिदशा में और सिद्धदशा में कारण-कार्य नियम है (cause and effect)? — नहीं। आत्माश्रय ही सिद्धदशा का कारण है।

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