सौंदर्य की शिक्षा

Educator’s guide for ‘Aesthetic Sense Development’ in primary school

Mihir Pathak
LearningWala STUDIO
12 min readNov 12, 2022

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अब तक खूब पढ़ा, अब कुछ करते है …

दो गहरी सांसें लें। हम्म, सौंदर्य के स्विमिंग पूल में डुबकी लगाने के लिए तैयार हो जाइए… रेडी, सेट , गो…

इस तस्वीर को ध्यान से देखिए। सिर्फ देखिए — संपूर्ण और यहां तक ​​कि सबसे छोटे विवरण को भी देखें।

ठीक है। अब आंखे बंद करके बिना हिले 10 सेकेंड तक शांति से बैठ जाएं। तस्वीर को अपने भीतर फैलने दो….!

आपको कैसा लगता है? अंदर क्या चल रहा था? यह सब अपने आप को प्यार से बताओ।

क्या आपको आपके जीवन में अब तक हुई ऐसी घटना, स्थान, दृश्य या कहानी-कविता-विचार को याद आ रहे है, जिसके संपर्क में आने से आप दो पल तक सुन्न हो गये हो। मन के सारे यंत्र बंद हो गए थे । बस आप थे और वह विषय था। फिर ऐसा तो क्या हुआ था कि कुछ देर के लिए तुम्हे कुछ भी पता ही नहीं चला : न कोई विचार नहीं, न कोई शब्द का मन में कोई बड़बड़ाहट। कुछ देर के लिए ये भाव अवस्था रही । इससे छुटकारा पाने के बाद ही अगर आपने खुद को या आपके आस-पास के कोई व्यक्ति को कहा हो , “मज़ा आ गया । आनंद आ गया। यह एक अद्भुत अनुभव था।” एक हलकापन आ जाए, सब अच्छा लगने लगे… ऐसा फिर अनुभव करने की इच्छा हो और आप अपने मित्र या प्रियजन से मिले तो उस अनुभव की बातें किया करें और उसका मजा भी लें ।

अगर आपके साथ एक या दो-चार बार ऐसा हुआ है, तो इसका मतलब है कि आपके पास तीन सबूत हैं: (1) आप सुंदरता का आनंद ले सकते हैं। (2) आंनद की प्राप्ति हो सकती है ।(3) यह बार-बार हो सकता है।

तो अब आनंद में डूबा देने वाली सौंदर्यशास्त्र की विद्युत चमक को धीमी गति में देख लें। ऒर सौन्दर्य शिखर के शीर्ष तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने का सैद्धान्तिक परिश्रम भी करें।

जब हम सौंदर्य का अनुभव करते हैं तो हमारे अंदर होने वाली क्रियाओं को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. संवेदनशील इंद्रियों के माध्यम से किसी वस्तु, घटना या विषय का होशपूर्वक सामना करना।
  2. उस विषय के संपूर्ण और साथ ही सूक्ष्म तत्वों का संयुक्त ग्रहण / आकलन करना
  3. मन-मस्तिष्क में पडे हुऐ संस्कारों, ज्ञान, अभ्यस्त प्रतिक्रियाओं और उनसे उत्पन्न होने वाले विचारों और व्याख्याओं को रोकना / ‘चूप बैठो’ कहना।
  4. विचार- तर्क से मुक्त मन में विस्मय, आश्चर्य या स्तब्धता के भाव का बोध होना ‘अहाहा… अहोहो..!’
  5. उस भाव में पके हुए दर्शन को बनाए रखना और इसे बिना किसी बाधा के फैलने देना।
  6. पलक झपकते ही बाहर से आ रहे अन्य डेटा / दृश्य को रोक कर सॊंदर्य संवेदन में जन्मे हुई सुख की स्थिति का आनंद लेना।
  7. समय की भावना के बिना शुद्ध-आनंद की वह अवस्था कोई विचार या बाहरी कारण से समाप्त होने के बाद हल्कापन, ऊर्जा और बिना शर्त प्यार का अनुभव होना।

“उफ़, ऐसी आनंद सप्तपदी हमारे भाग्य में नहीं लगता!” ऎसी आह मत भरो। आपको लगेगा कि क्या सुंदरता का आनंद लेना या खुशी पाना सीख-सीखा सकते हैं? उत्तर है: हाँ, यह सिखाया जा सकता है। बचपन से या वयस्कता से भी, इस ब्रह्मानंद जॆसे सौंदर्यबोध या aesthetic sense की शिक्षा दी जा सकती है।

माता-पिता, बुजुर्ग, दोस्त और शिक्षक भी बच्चों और साथियों को सौंदर्य जागरूकता के लिए तैयार करने के लिए काम कर सकते हैं। उसके लिए कुछ समझ और तैयारी विकसित करनी होगी।

(I) संज्ञानात्मक तत्परता / तॆयारी: समझें और समझाएं कि सब कुछ सुंदर है। दुनिया में कुछ भी बदसूरत नहीं है। चीजें, व्यक्ति, विचार, दृश्य अपने आप में सुंदर या बदसूरत नहीं हैं। हमारी अपनी जरूरत या इंसान-जानवरों के रूप में सोचने के तरीके के कारण, हम कुछ बुरा या बदसुरत और कुछ अच्छा और सुंदर महसूस करते हैं। अगर जंगल से तेंदुआ आकर गांव के किसी बच्चे को खा जाए तो हमें बुरा लगता है। लेकिन अगर हम उस तेंदुए के भाई-बहन मातापिता हैं, तो हम अपने प्यारे तेंदुए की साहस और बहादुरी की सराहना करेंगे। मनुष्य होने के नाते हम अपनी प्रजाति के जीवों के प्रति पक्षपाती हैं और आदमखोर जानवरों को खतरनाक मानते हैं। इस प्राकृतिक संसार में सृष्टि और प्रलय की घटनाएं होती ही रहती हैं। इस तरह की समझ के कारण, हमारे अनुभव सही-गलत जैसे नैतिक निर्णयों और द्वेष की व्याकुलता से प्रभावित नहीं होते ।

(II) विकासवादी विज्ञान से समझे जाने वाले मुद्दे : केवल वे जीव लंबे समय तक जीवित रहते हैं जो स्वस्थ और मजबूत होते हैं और/या नए कौशल सीखने के लिए पर्याप्त बुद्धिमान होते हैं। महिलाएं ऐसे पुरुषों को ही पसंद करती हैं जो सुंदर और मजबूत हों। ऐसे नर बेहतर संतान और सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी, दिखने, ताकत और कौशल में बेहतर जीवों का उत्पादन होता गया। इसका मतलब है कि आज हम जो कुछ भी देखते हैं वह कुछ सौ, हजार या लाखों साल पहले के पूर्वजों की तुलना में अधिक सुंदर है, शारीरिक और/या मानसिक रूप से। यह यौन चयन और सौंदर्य बढ़ाने (sexual selection and beauty enhancement) का प्राकृतिक सिद्धांत है। अगर आपके पास चित्र या तस्वीरें हैं, तो तीन या चार पीढ़ियों पहले अपने बड़ों के चेहरों और अपने और अपने बच्चों के चेहरों की तुलना कर के देख लें।

(III). परिचालनगत तत्परता : अवलोकन का धैर्य और कौशल: हमारी इंद्रियां बाहरी दुनिया को डेटा या सूचना के रूप में हमारे पास लाती हैं। इंद्रियों की संवेदनशीलता जितनी अधिक होगी, डेटा प्रवाह उतना ही अधिक होगा। त्वचा, कान, आंख, जीभ और नाक जितनी तरोताजा होगी, जानकारी उतनी ही अधिक और स्पष्ट मिलेगी। यह तैयारी जीवन के पहले पांच-सात वर्षों में हासिल करनी /करवानी पडती है। बाद के वर्षों में आदतों, कर्मकांडों, समाजीकरण और सीखने के कारण मन की सृष्टि बनने लगती है। मन पिछले अनुभवों के आधार पर यंत्रवत् तुलना और मूल्यांकन करता है। इस लिए मस्तिष्क में नए ज्ञान मार्ग तैयार नहीं हो पाते। यदि प्रारंभिक वर्षों में कुछ संवेदी संवेदनशीलता विकसित की हो गई हो और बाद के वर्षों में विभिन्न अनुभवों के लिए समय और अवसर मिलता रहे, तो बड़े होने के बाद भी सौंदर्य की भावना काफी हद तक संरक्षित होती है।

(IV) भावनात्मक तत्परता: यह कुछ “पाने” या कुछ “करके” पाने की कला नहीं है। हम हर पल किसी न किसी भाव स्थिति में रहते ही हे; लेकिन मन, आत्मा और बुद्धि के निरंतर स्वचालित यातायात और हमारे व्यावहारिक कार्यों से संबंधित विचारों के कारण भाव दशा खराब हो जाती है। हमारा मन सुख-दुःख, पसंद-नापसंद, प्रसन्नता- उदासी, क्रोध-जुनून प्रेम-घृणा जैसे आवेगों और भावनाओं का निर्माण करता है। (चूंकि बच्चे में अभी मन नहीं बना है, उसे सब कुछ सुंदर और सुखद लगता है।) इस प्रकार मन, जो मनोदशा को बिगाड़ता है और विचारों का बवंडर बनाता है, उसी को रिवर्स गियर में जाके खुद को नकारने की, मौन में रहने कि और विचार धाराओं को अपने से अलग देखने की क्षमता भी होती है। यदि मन विचारों को शांत कर दे, तो हमें परेशान करने वाली प्रतिध्वनियां रुक जाती हैं और एक शुद्ध मनोदशा का निर्माण होता है।

ऐसा भी होता है कि कोई घटना, दृष्टि या स्मृति हमारे सामने आती है जो इतनी तीव्र होती है कि वह हमारे विचारों को रोक के हमें परमानंद की स्थिति में ले जाती है। ऐसी अवस्था भले ही दो-चार सेकेंड या एक मिनट की हो, लेकिन इतने कम समय में सुख या रुचि का अनुभव हो जाता है। सुंदरता या आनंद की अनुभूति कई मिनट या घंटों तक नहीं रह सकती है। यह हमें भरपूरता में डूबा देती है। उस अवस्था में, मन और विचार न होने के कारण समय का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। “समय रुक गया है” जैसी अभिव्यक्ति भावदशा समाप्त होने के बाद ही की जा सकती है। हम कभी नहीं कह सकते कि “अब समय ​रुक गया है।” क्योंकि सोचने साथ ही समय बनता है, अस्तित्व में आता है।

(IV) नए अनुभवों और घटनाओं में प्रवेश करने के लिए साहसिक रवैया: जो अभिनव है, उसमें सुंदरता है । एक अभूतपूर्व स्थिति में हम आश्चर्य, विस्मय या स्तब्धता महसूस करते हैं। ईस प्रकार की भावस्थिति में सुंदरता और आनंद प्रगट होता है। यदि आप किसी परिचित जगह, परिचित स्वाद या परिचित गीत का फिर से आनंद लेते हैं, तो आपको उसकी सब से पहेली बार की ‘अहेसास की स्मृति’ घेर लेती है। उस याद को ताजा करने से पुरानी मस्ती जाग उठती है। जब आप किसी परिचित स्थान, स्वाद, गीत, या विचार का पुन: अनुभव करते हैं, तो “इसमें से कुछ नया प्राप्त हो रहा हॆ” ऎसा आपको लगता हो तो वह आनंद सॊंदर्य का हॆ। जब कोई चित्र, कविता, गीत, दृश्य या व्यक्ति इतना विशाल होता है कि आप उसमें कदम रख सकते हैं और कुछ नया सीख सकते हैं, तब हम सुंदरता का अनुभव करते हैं । हम संकीर्ण दुनिया से विशाल दुनिया तक पहोंचके अनंत की प्राप्ति करते हॆ। यह हमें खुशी देता है। और जब कोई भव्य, विशाल, नया दृश्य हमारे सामने आ जाता हॆ, तो हमें “मैं यह सब देख रहा हूँ” ऐसी समझ मौजूद नहीं होती हॆ। हम स्वयं अपनी संकीर्ण दुनिया से निकलकर अनंत दुनिया में फैल जाते हैं। हमारा सीमित व्यक्तित्व सुस्वाद बनकर विस्तारित हो जाता है और “भूमा वै सुखम”: ‘व्यापकता ही आनंद है’ वह सूत्र सिद्ध होता है।

सावधानी! यह मत समझो कि तैयारी के उपरोक्त बिंदु अच्छी तरह से समझ में आ गये तो आनंदलोक की चाबी मिल गई! सुंदरता की शिक्षा (अरे, किसी भी चीज की शिक्षा के लिए अभ्यास अर्थात्‌ practice to do something की आवश्यकता होती हॆ) पांच इंद्रियों की सक्रिय संवेदनशीलता की अनुभवात्मक विकास की प्रक्रिया होती है।

सौंदर्य शिक्षा का पोषण करने वाली गतिविधियाँ:

सुंदरता के माध्यम से महेसूस होने वाले आनंद, रुचि का मजा लेने के लिए ‘जो अंदर गिरता है उसे बड़ा सुख मिलता है’, का अनुभव कराने के लिए बच्चों को (यहां तक ​​कि वयस्कों को भी) कैसे शिक्षित करें? शिक्षक और माता-पिता ईस में किस तरह से मदद कर सकते हैं?

दृष्टि सौंदर्य की शिक्षा : प्रारंभिक स्तर ऐसे दृश्य दिखाना जो आम तौर पर सभी को सुंदर लगते हैं। अधिकांश जानकारी आंखों के माध्यम से हमारे अंदर जाती है। यह स्मृति में अधिक जगह रोकता हॆ ईस लिए लंबे समय तक इसे संसाधित किया जा सकता है। बच्चों को किसी प्राकृतिक क्षेत्र में टहलने के लिए ले जाएं। बेवजह भटकने के बाद, खेलने के बाद वहां का पेड़, पहाड़, जमीन, पानी आदि का निरीक्षण करें, आकाश दर्शन और पक्षी दर्शन भी करायें, प्रकाश, छाया, रंग, आकार आदि दिखाएं, आंखों से देखने के लिए कहें। सूर्यास्त, सूर्योदय, बारिश, चांदनी के समय खेतों और पेड़ों को दिखाएं। उससे अगले चरण में अधिक सूक्ष्म अवलोकन की ओर ले जाएं। पत्तियों पर डिजाइन, पत्थरों के आकार, पत्थरों के अंदर की डिजाइन, पक्षियों के रंग, तितलियों, घास के विवरण को देखने, दिखाने और वर्णन करने के लिए कहें। बच्चे को तुलना न करने दें। यह सब देखकर “कितना अच्छा,” “वाह, सुंदर!” “मुझे मज़ा आ रही है” जैसा कुछ आप भी मत कहो और उसे बोलने के लिए भी मत कहो। ( ईस तरह के बयान ‘इसके अलावा सुंदर नहीं’ का आकलन प्रस्तुत करता है। साथ ही इस तरह बोलना कोई प्राकृतिक विस्मयादिबोधक नहीं है बल्कि ‘अच्छा दिखाने’, के लिए की हुई प्रतिक्रिया हॆ, कृत्रिम है।) बच्चों को कहें कि घर जाके अपने दोस्तों, माता-पिता से बात करें कि उन्होंने वहां क्या देखा।

घर पर चित्र, नई चीजें दिखाएं। चित्र प्रदर्शनियों, गुड़ियाघरों, मछलीघर, मेलों पर जाएँ। बच्चों को चित्र बनाने, रंगोली करने रंग दें, लेकिन कोई निर्देश न दें जैसे “ऐसा चित्र बना, ऐसा रंग कर ।” यह सुनकर बच्चा आपकी पसंद की तस्वीर बनाने की कोशिश करेगा, अपनी मौलिकता नहीं ला पाएगा। उसे विविध वस्तुओं, पत्थरों, पत्तियों, अजीब लगने वाली उपयोगी या बेकार वस्तुओं के संग्रह की अनुमति दें।

(2) स्पर्श सौंदर्य की शिक्षा: प्राकृतिक और मानव निर्मित वस्तुओं को बालक छूए, उनके ऊपर हाथ चलाये, आंखे बंद करके स्पर्श को महसूस करे। विस्तार, आकार, चिकनाई या वजन के अनुसार चीजों में अंतर करे, उनका वर्णन करे, और ऐसा करने का अभ्यास करे। उन्हें चिपचिपी, कांटेदार, धूल भरी विभिन्न वस्तुओं को छूने के लिए कहें और उन्हें पहचानें और वर्णन करें कि वे कैसा महसूस करते हैं। “मुझे यह पसंद है, मुझे वह पसंद नहीं है, आपको कौन सा पसंद है?” इस तरह के भेदभाव में न पड़ने दें।

(3) स्वाद सौंदर्य की शिक्षा: बच्चों को कहे कि खाने को अच्छी तरह चबाकर, मुंह में घुमा कर उसका रस लें। मुंह में घुमाकर, कहां छूने पर कॆसा स्वाद आता है वह बतायें। शुरुआत में खराब, कड़वे स्वाद वाला खाना न खिलाएं। उन सामग्रियों से शुरू करें जिनमें कम गंध और अधिक स्वाद या रस हो। “मुझे ईसका स्वाद पसंद हॆ, तुम्हे पसंद हॆ या नहीं?’’ जैसे प्रश्न पूछकर आकलन न कराऐं | आगे जाके सभी स्वाद की वस्तुएं खाने और महसूस करने का अभ्यास कराएं।

(4) घ्राण सौंदर्य की शिक्षा: हमारे पास चीजों को सूंघकर स्वीकार या अस्वीकार करने की एक पशु सहज क्षमता है। पशु और बच्चे सूंघ के निर्धारित करते हैं कि वह चीज पेट में जाने लायक है या नहीं। यह प्रोग्राम जन्म से मनुष्यों में जमा हुआ नहीं होता । गंध जो वास्तव में स्वस्थ नहीं हैं वह ज्ञात हो जाती हैं। लेकिन शाकाहारी, मांसाहारी परिवार में गंध की स्वीकृति पर्यावरण और आदत से निर्धारित होती है और बाद में बदल भी सकती है। फूल, पत्ते, कच्चे-पक्के फल, लकड़ी, कपड़ा आदि चीजों को सूंघने का अभ्यास कराते रहें।

(5) नाद सौंदर्य की शिक्षा: ध्वनि सबसे सूक्ष्म और अमूर्त जानकारी या डेटा है। इसलिए उस के सॊंदर्य को सम‍झना अधिक कठिन हो जाता है। बेशक, जब से बच्चा गर्भ में होता है, तब से वह कुछ आवाजें और आवाजें सुनना शुरू कर देता है और बार-बार सुनाई देने वाली परिचित आवाजों से शांत हो जाता है। डरावनी आवाजों को पहचानने की क्षमता भी जन्मजात होती है। अगर कुछ टूटता है, फटता है, चीखें सुनाई देती हैं तो सभी बच्चों को डर लगता है। स्वर प्रशिक्षण के लिए तुकबंदी, गीत, कविताएँ सुनाते रहें। जानवरों और पक्षियों, नदी और समुद्र, हवा और पत्तियों की आवाज़ को ध्यान से सुनना सिखाएं। वाद्य संगीत को भी उनके ध्यान में लाएं। बच्चा विभिन्न प्रकार की ध्वनियों को पहचाने, ध्वनियाँ निकाले। छोटी और मध्यम ध्वनियों के बीच भेद करें: लकड़ी, प्लास्टिक, कागज, लोहा ऐसी ज्ञात ध्वनियों को आंख बंद कर के या बाहर से आने वाली ध्वनियों में भेद करने की आदत डालें। भयानक आवाज, मीठी आवाज, कर्कश आवाज आदि विशेषण देकर बच्चे में भावनाएं पैदा न करें। जितना कम विरोध होगा उतना बेहतर होगा, उसे सब कुछ अच्छा, स्वीकार्य और स्वादिष्ट लगेगा। बाद में कई रागों, फिल्मों, मधुर संगीत के गीतों का पाठ करें; साथ में बैठे और सुनें। कहानियाँ, निबंध, यहाँ तक कि नाटक भी सुनाएँ।

इस प्रकार, पांचों इंद्रियों की संवेदनशीलता विकसित करने के बाद, उसे जितना संभव हो उतने अलग-अलग अनुभव दें। तुमने क्या देखा, क्या सुना, किस को छूआ- यह सब याद कराएं। वह अवस्था जहाँ अनेक इन्द्रियों की प्रतिक्रियाएँ एक साथ प्राप्त होती हैं, वह अवस्था सर्वाधिक शैक्षिक होती है। किसी चीज को देखकर कूदना, आंखें बंद करके गहरी सांस लेना, देखना, सूंघना, चखना, छूना और सुनना- ऎसे सभी इंद्रियों के माध्यम से संगठित और एकीकृत अनुभव लेने से सौंदर्यबोध की शिक्षा दिलचस्प बनती है। फिर, बड़ी उम्र में, सिर्फ सुनके या पढ़के भी वह किशोर या युवा अपने भीतर पैदा हुए विचारों, दृष्टि, गंध, ध्वनि, रंग, स्पर्श की भावना और सुंदरता को अपने भीतर पॆदा होता हूआ महसूस करेंगे।

एक बड़ी उम्र की व्यक्ति के लिए यह सब सीखना, विकास करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता हॆ ऒर फिर भी, खुशी की अनुभूति इतनी तीव्र न भी हो पाए।

सौंदर्य सारांश:

सौंदर्य की अनुभूति मतलब किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, विचार, पुस्तक, फिल्म, या किसी केवल एक इंद्रिय द्वारा भी मिल सके ऎसे कोई विषय के संपर्क में आने पर महसूस होती आनंद की अनुभूति है। ऐसा भाव ऊब, तनाव, क्रोध, शोक और भय जैसी अप्रिय भावनाओं से छुटकारा दिलाता है। जैसे-जैसे हम ऐसा करना सीखते हैं, हम खुश रह सकते हैं — दुनिया और जीवन का बेहतर आनंद उठा सकते हैं।

सुंदरता और उसके अहसास के बारे में निम्नलिखित को समझा जा सकता है:

(1) हम वस्तु-व्यक्ति-पथ-विचार आदि के साथ जो मानसिक स्थिति से संपर्क में आते हैं, उस समय दोनों बीच में होती अंदरोनी क्रिया से सॊंदर्य का जन्म होता है। सुंदरता चीजों या विषयों में नहीं होती है।

(2) जैसे-जैसे हम अपनी इंद्रियों की संवेदनशीलता को बढ़ाते जाएं और अपने भीतर की मान्यताए, पूर्वाग्रह, इरादों और आकांक्षाओं को वर्गाकार कोष्ठक में रखना सीख लें, तो सुंदरता के आनंद की स्थिति अपने आप / स्वाभाविक रूप से प्राप्त होती हॆ।

(3) सौंदर्य-धारणा कोई ज्ञान, समझ, व्याख्या, तुलना या मूल्यांकन नहीं है। लेकिन यह सब करने वाले भौतिक बादल के नष्ट होने के बाद, पूरे अस्तित्व में व्याप्त होने वाला भाव/भावना/मूल्य हॆ। विचार में शब्द होते है जबकि भाव तो शांति, विश्राम और बिना चोट के संतुलन की शब्दहीन चैतसिक स्थिति है।

(4) पंचेन्द्रियों का सीधा उपयोग न होता हो ऎसी चीजों या विषयों के संपर्क से भी सौंदर्य की भावना पैदा होती है। लेकिन इसके लिए उस विषय की बौद्धिक तैयारी की आवश्यकता होती है। यदि कोई साहित्य, दर्शन, मनोविज्ञान, विज्ञान, गति, प्रौद्योगिकी या किसी भी विषय और प्रकार के लेखन / पाठ को पढ़ते या सुनते हैं, तो भी सौंदर्य आंनद में डूब सकते हैं।

(5) दुनिया में जो भी मूर्त या अमूर्त हैं वह सभी तत् सत् को हम अपने संपर्क और मिलन की गुणवत्ता से सुशोभित कर सकते हॆं।

आप ख़ूबसूरती के शिखर पर आनंद के खलिहान से निकलते कपूर की महक के जॆसे अचल ऒए चल के खेल में एकरूप हो सको ऎसी शुभकामनाऐं!

महेंद्र चोटलिया लिखित यह लेख गुजराती में ‘कोड़ियु’ नाम के मेगेजिन में प्रकाशित हुआ था । पूर्वी निसार द्वारा इसका भाषांतर किया गया और उसका पहेला ड्राफ़्ट यहाँ पर रखा गया है । जिस में प्रूफ़ रिडिंग — भाषाई त्रुटिओ को सुधारना बाक़ी है ।

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Mihir Pathak
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Experiential Educator | Nature - Theater - Project based learning