प्रतिबिंब

Hindi Poetry

Dr. Nishtha Srivastava
Literary Impulse
2 min readJun 12, 2024

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Photo by Mateusz Klein on Unsplash

इस गतिशील दुनिया की अंधवत् भागदौड़ में ,

मैं लोगों से ज्यादा प्रतिबिंब-परछाइयों से टकराती हूं।

इनकी फितरत जो है हमको घेरे रखना ,

कभी तेज चमक से हमको लुभाना,

तो कभी कद-काठी बदल हमारा मनोरंजन कर जाना ।

आज जो मैंने आईना उठाया ,

तो अपनी झलक को मोहक पाया।

अगर जो यह आईना मेरा व्यक्तित्व दिखाता,

तो क्या इसे बार-बार उठाने का मेरे अंदर साहस आ पाता ।

आईना जो करता है वाहन की सवारी,

उसने कभी अपनों तो कभी परायों को मुझसे निकट-दूर होते दिखाया है।

खिड़की के कांच ने भी मुझको यही सिखाया है,

दूसरे की दुनिया में झांकने से पहले मैंने खुद से ही खुद को चेतावनी देते हुए पाया है।

एक है मेरी परछाई जो हर वक्त मेरे साथ चलती है,

कभी आगे तो कभी पीछे कभी छोटी तो कभी लंबी,

यह अपने अनगिनत रूप बदलती है।

पर जब कभी छा जाता है मेरे चारों तरफ अंधेरा,

तो यह भी इंसानी रूह की तरह मेरा साथ छोड़ दिया करती है।

मैं खुद को सबसे ज्यादा जल बहाव में बनते अपने प्रतिबिंब से जोड़ पाती हूं।

दिन के उजाले में जो खूब चमकती है और चांद की चांदनी में भी धूमिल ही सही,

पर ठहरी तो रहती है।

स्थिर बैठूं जब जलकिनार मैं,

तुझको ही ताका करती हूं ।

मेरे मन में उठती विचलित लहरों के साथ तू भी लहरें भर लिया करती है।

मुस्कुराहट है मेरे चेहरे पर, कोई इंसान ना सही पर तू तो मुझे समझती है।

तेरे भीतर भी छुपी है एक गहराई,

वैसी ही एक रहस्यमय गहराई है मेरे भी अवचेतन मन की।

नाप पाना दोनों को ही है एक सा मुश्किल।

और मैंने कहते सुना है लोगों को,

ज्यादा गहराइयों में उतरना जोखिम से भरा होता है।

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Dr. Nishtha Srivastava
Literary Impulse

Resident Doctor in Anesthesiology | Medicine, Philosophy, Psychology, History, Writing, Fitness interests me.