उम्मीदें

Kritika Mehta
my tukbandi
Published in
1 min readJul 4, 2024

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बड़े ठोस मन सा खड़ा है,
इंसान उम्मीद से भरा है।

साए सा पिघलता है,
दिन की ढलान सा बहता है।
आँसुओं सा रिसता है कभी,
कभी ठुकराई सोच का परिंदा बन उड़ता है।
अब बंजर ज़मीन सा पड़ा है,
बंजर धरती की दरारों सा
विभक्त हो चला है।

देह अब ये खोखला है,
ख़ुदी के युद्ध में बेमायने खड़ा है।
इंसान बड़ा नहीं बना,
सब पाने की चाह में,
पत्थर की कठोरता में ढलता चला है।

बड़ा सख्त सा खड़ा है,
भीतर से खोखला जैसे बांसुरी का स्वर कोई।
जो कुदरत के खिलाफ हो चला है,
अपनी मूर्खता पे भी
अहम् में डूबा खड़ा है।

उम्मीद को भूल चला है,
दिखावे की चमक में यूं ढला है।
विकास की चकाचौंध में खोया है,
मिथ्या के संसार में जी रहा है।

बड़े ठोस मन से खड़ा है,
जीवन के असली मूल्यों से अनजान हो चला है।
पतन की कगार पे खड़ा है,
ग़लत उम्मीदों की ढाल बनाए,
सही के खिलाफ खड़ा है।

बड़े ठोस मन सा तो खड़ा है,
पर भीतर से खोखला, यूं ही ज़िद पर अड़ा है…

आज का इंसान भी…
ना जाने कैसी उम्मीद से भरा है।

© Kritika Mehta

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Kritika Mehta
my tukbandi

Life's curveballs only strengthened my spirit. Today, I flourish as an author, artist, and connoisseur of life, imparting wisdom on the art of balance.