खेत, खेजड़ी और कमेड़ी
Rajasthani Kavita: म्हारी कविता भोळी कमेड़ी है… | A Rajasthani Ghazal by Rajendra Nehra
खेजड़ी, राजस्थान का राज्य वृक्ष होने के साथ-साथ किसान के खेत में खड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण पेड़ है। किसान के लिए खेत सोना है, तो खेजड़ी सुहागा। चिलचिलाती धूप में जब कृषक अपने खेत की सार-संभाल करता है तो खेजड़ी की छाया उसके लिए फूलों की सेज बन जाती है और खेजड़ी पर बैठी कमेड़ी की मधुर आवाज़ सुनकर उसकी सारी थकान जाती रहती है। ज्ञात रहे, उस भरी दुपहरी में मोर-पपीहा-कोयल-बुलबुल कहीं नज़र नहीं आते हैं और खेजड़ी की डाल पर बैठी उस कमेड़ी की कर्णप्रिय आवाज ही किसान की कविता की प्रेरणा बनती है। और वो कविता होती है कुछ इस प्रकार-
हाड़-तोड़ मेहनत वाला काम करने से थके हारे कृषक-दंपति खाना खाने खेजड़ी की छाँव की ओर चलते हैं। वहां बैठकर एक दूसरे को ख़ाना परोसते हैं, तब कृषक खेजड़ी की तरफ़ देखकर अपनी प्रेयसी धर्मपत्नी कृषणी से कहता है-
ये अपने खेत में जो खेजड़ी है, मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम जैसी है।
ख़ाना खाकर एक दूसरे के हाथ धुलवाते हैं और फिर थोड़ा सुस्ताते हैं। उनकी निगाहें ऊपर खेजड़ी की तरफ़ है, ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे दोनों खेजड़ी के पत्ते गिन रहें हों। तभी एक कमेड़ी उसकी डाल पर आकर बैठती है और बड़ी मधुर आवाज़ में कुछ बोलती है, मानो खेजड़ी से ही कुछ कह रही हो। इस दृश्य को देखकर किसान आगे कहता है-
इस खेजड़ी की डाल पर बैठकर (जो) बोलती है, मेरी कविता वही भोली कमेड़ी है।
यह सुनकर कृषणी के मन में क्या-क्या भाव उमड़े, उनका वर्णन करना मेरे लिए बहुत कठिन है। लेकिन किसान उन भावों को उसके चेहरे पर पाकर फिर आगे कहता है-
जैसे सीप के पास मोती होता है पगली! तुम वैसे ही मेरे कलेजे के समीप हो।
तब कृषणी कहती है- कविता करने भर से काम नहीं हो पाएगा, चलो उठो, पुनः काम पर लगते हैं।
दोनों उठते हैं और अग़ल-बग़ल ही काम पर लग जाते हैं। मन ही मन कृषणी अपने प्रियतम की कविता को दोहरा रही है। काम करते-करते उसे अपने बच्चों का ख़याल आता है जो घर पर अपने दादा-दादी के साथ मौज-मस्ती कर रहे होंगे। कृषणी मुस्कुराती है और अपने बच्चों को आशीष देती है-
अच्छे तो काम करो, श्रेष्ठ मनुष्य बनो, ईश्वर तक जाने वाली यही एक सीढ़ी है।
शाम को दोनों अपने घर पहुँचते हैं और अपने-अपने काम निपटाते हैं। एक काश्तकार के दैनिक जीवन में अनगिनत काम होते हैं। घर आने के बाद वो अपने मवेशियों को सम्भालते हैं, उनके चारे-पानी की व्यवस्था करते हैं, उनका दूध निकालते है, और भी बहुत कुछ जिनका वर्णन यहां नहीं किया जा सकता। कृषणी ख़ाना बनाने में माहिर है तो वो ख़ाना बनाती है, कृषक भैंस दुहने में चपल है तो वो फटाफट दूध निकालकर उसे चूल्हे पर गर्म होने के लिए चढ़ा देता है। इस प्रकार साथ-साथ कई काम चलते रहते हैं। जब खाना तैयार हो जाता है तो कृषणी आवाज़ लगाती है-
लो नेहरा जी आओ! भोजन कर लेते हैं, बाजरे की रोटी और काचरों की सुखेड़ी (की सब्जी बनाई) है।
अपने ही खेतों में उपजा एकदम शुद्ध ख़ाना (जिसे आजकल “जैविक” बोलकर प्रचारित किया जा रहा है और बाज़ारवाद से जोड़कर बेचा जा रहा है) खाकर अपने माँ-बाप और बच्चों के साथ एक छोटे से घर में बड़े-बड़े सपनों के साथ वो समय पर सो जाते हैं। जब उनके खर्राटे चालू होते हैं, तब दूर शहर में कोई टीवी चालू कर रहा होता है, कोई खेती और किसानों पर लेख लिख रहा होता है, कोई झूठा ख़ाना कचरे में फेंक रहा है होता है, कोई पिज़्ज़ा ऑर्डर कर रहा होता है, कोई मदिरालय की क़तार में खड़ा होता है, कोई केक काटने के इंतज़ार में होता है, कोई अपने नये दोस्त के साथ सिनेमा देखने जा रहा होता है, कोई घर आने में देरी होने का बहाना बना रहा होता है, कोई अपनी दुकान का शटर गिरा रहा होता है, कोई अंतिम बस/ट्रेन/लोकल/मेट्रो पकड़ने की जद्दोजहद में होता है, कोई अपना रिक्शा लेकर नाईट-शिफ्ट के लिये घर से निकल रहा होता है, कोई रिक्शा पकड़कर दफ़्तर जा रहा होता है, कोई दिनभर में जोड़े गए पैसों को बच्चों की फ़ीस हेतु गाँव भेजने के लिए गिन रहा होता है…
वैलेंटाइन दिवस, ब्रेकअप-पैचअप, डिंक (डबल इनकम – नो चाइल्ड), लिव-इन संबंध, इत्यादि शब्दावलियों से अनभिज्ञ, कृषक-दम्पति सुबह उठते हैं और बच्चों-मवेशियों को संभालकर पुनः चल पड़ते हैं अपने खेतों की ओर एक सुखद प्रेम-यात्रा पर। समलैंगिक विवाह, राम-मंदिर, सरोगेट-चाइल्ड विदाउट मैरिज, ये सब उनकी माँगें नहीं है। उनकी माँग है तो केवल एक- “मेहनत का सही मोल”
पढ़ने के लिए आपका आभार। अपनी राजस्थानी कविता का अनुवाद करने की मेरी ये कोशिश कहाँ तक कामयाब हो पाई ये तो आप ही बता सकते हैं। यदि आपने मेरी राजस्थानी कविता अभी तक नहीं पढ़ी है तो अवश्य पढ़ें-
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