बचपन का खेल।
बचपन कितना सुहाना होता है। हर दिन स्कूल नहीं जाने का अलग बहाना होता है । मेरा भी कभी पेट दुखता तो कभी उंगली।
weird right?
मां भी इन बहनों को समझ जाया करती थी और डांट डपट कर स्कूल भेज दिया करती थी। लेकिन एक इंसान था जो मेरे हर झूठे बहाने को सच साबित करने में तुला रहता था। दादा जी कहती थी मैं उन्हें।
बचपन अगर चाय है तो दादाजी उसमें मिलाई वह मिठास, जिसके बिना चाय -चाय नहीं महज़ दूध और पत्ती है।
उनके कमरे में एक संगमरमर का पलंग था जिसके एक कोने में उनका सिंहासन और उसके सटीक सामने उनका टीवी जिस पर सिर्फ हमारी पसंद के कार्टून चला करते थे जिसका वह भी बराबरी से लुत्फ़ उठाया करते थे।
लेकिन इतवार को नहीं।
वह दिन कुछ स्पेशल होता था । कड़कती धूप में आंगन स्थित फारगती पर बैठ दादाजी अपनी कहानियों का पिटारा खोला करते थे । जिसकी मुख्य पात्र होती थी मैं और विलेन(villian) मेरी उस हफ्ते करी गई गलतियां । बच्चों को बिगाड़ने का ठेका तो उन्होंने ले ही रखा था । कभी आइसक्रीम लाते तो कभी टॉफिया दिलाते और बाद में उन्हीं को बुरा बताकर कहानियां सुनाते। उनकी इन्हीं कहानियों को मैं मोती की तरह अपनी जिंदगी में पिरोती चली गई।
उनके आसपास होने की भावना शब्दों में वर्णित नहीं की जा सकती । विशेष संबंध साझा करते थे हम |
जैसे उन्हें UNO खेलना बेहद पसंद था। पता नहीं क्यों? हमेशा हार तो जाया करते थे वह मुझसे । लाल पर पीला नहीं चल सकते इसका भी पेनल्टी कार्ड उठाते थे और जब मैं उन्हें चिढ़ाती तो कहते कि इसी हार में मेरी जीत है। समझोगी तुम भी कभी ।
और घर में किसी का भी जन्मदिन जानना होता तो फट से आवाज लगाते थे मुझे। “तारीखें याद रखने में बहुत कुशल हो तुम” यह कहा करते थे।
7 जुलाई 2010
तो यह तारीख कैसे भूल जाती? सफर पर निकले थे वह उस दिन। अपने आखिरी सफर पर। उनके बिना बचपन मानो राजा बिना शतरंज का खेल। भला क्या वजूद ऐसे खेल का? जब थोड़ा समझा, थोड़ा सोचा, संभाला जब खुद को तब ऐसा लगा मानो वह बचपन कहीं खो सा गया । फारगती की धूप बढ़ती जा रही थी और वह कहानियां वह धुंधली हो रही थी । किसी दिन उनसे मुलाकात हुई तो एक बात जरूर कहूंगी। कहानी लिख कर आई हूं आपके ऊपर। सुनिएगा जरूर। थोड़ा झूठ है पर उसमें संजोया वह प्यार पूरा सच है । दिल में छुपी कुछ बातें थी जो बचपन में जुबां पर ना आ पाई तो अपनी कहानियों के जरिए क्षमा मांगना सीख लिया है मैंने।
पता है! हर सवेरे कड़कती ठंड में 6:00 बजे सैर पर ले जाया करते थे दादाजी । नींद तो आज भी 6:00 बजे खुल जाती है। आंख खुलते ही अकेलापन सामने से गुजर जाता है जिसे मेरी कलम ने अपने शब्दों से भरना सीख लिया है । आज भी मैं वह सारे खेल हारने को तैयार हूं वह पलट कर तो देखें। हार कर जीतना क्या होता है सिखा कर तो देखें। वह सिहासन कुछ सुना लगता है। उनका प्यार से आवाज लगाना आज खूब याद आ रहा है वो जमाना। लेकिन, जब समझ आया कि वह अब लौटकर नहीं आएंगे तो पुराने रखें उस दराज में उनकी सारी यादें कैद करने को जी करा ।
जब समेटने जा रही थी वह सारी कहानियां, शेर और सीखें तो बचपन कहीं मिला ही नहीं मानो उन्हीं की तरह कहीं खो सा गया।