मुद्दे बढ़ते जा रहे हैं और हम भटकते…
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इन दिनों दिमाग को थोड़ी शांति मिली। समूचे देश में लॉकडाउन लगने के कारण सप्ताहांतों पर इधर-उधर आवाजाही से बचे रहे, साथ ही कार्य-घंटे कम होने के कारण भी थोड़ा सुकून मिला। जिससे हुआ ये कि दिमाग को कुछ नया और रचनात्मक सोचने का अवसर मिला। यहां पर मैं एक बात विषय से इतर कहना चाहूंगा कि जो लोग या संस्था (वो चाहे आपका मालिक हो या फिर देश की सरकार) आपको दबाकर रखना चाहते हैं वो यही चाहते हैं कि आप बिना गर्दन उठाए बस अंधाधुंध काम में लगे रहो, ताकि कुछ नया, रचनात्मक और खुद के कल्याण का सोच ही ना पाओ। खैर छोड़िए…
हां तो मैं क्या कह रहा था… कुछ नया, रचनात्मक…, हां… इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैंने भी कलम उठाई। यहां पाठक सोच रहे होंगे कि आज के दौर में कलम कौन उठाता है, लेकिन मैं आपको बता दूं कि अच्छा लिखने के लिए आपको अच्छी किताबें भी उठानी पड़ेंगी और कलम भी। नहीं तो फिर मेरी तरह बस यही लिख पाओगे कि सुबह छः बजे उठा, दोपहर को चीनी-मुक्त चाय पी और रात को पसर गया। खैर छोड़िए… मुद्दे की बात करते हैं… लेकिन हम मुद्दे पर आ क्यों नहीं पा रहे हैं? दरअसल, मुद्दे बढ़ते जा रहे हैं और हम भटकते।
…हां तो कलम उठाई और लिखा… पर्यावरण दिवस पर, ना कि संरक्षण पर। आप भी पढ़िए-
अब ये पढ़कर पत्नी हो गईं नाराज़। खीझकर बोली- ‘जब गर्लफ्रैंड थी तो खूब लिखते थे, अब जब पत्नी हो गई हूं तो कलम का पिछवाड़ा मुंह में दबा लिया!’ ये सुनते ही मेरे कानों में चूंऊऊऊं-चूंऊऊऊं की एक लंबी तरंग दैर्ध्य की आवाज चालू हो गई और कलम स्वतः ही उच्च आवृत्ति के साथ कागज़ पर सरपट दौड़ने लगी। जिसका नतीजा ये निकला-
उम्मीद है आपको मेरी ये कविताएं पसंद आई होंगी। आई तो अच्छी बात है, नहीं तो उम्मीद छोड़ देना। अब शायद ही कभी लॉकडाउन लगे। और लगना भी नहीं चाहिए। हमें बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और इलाज पर काम करना होगा, ताकि लॉकडाउन जैसे विकल्प की तरफ जाने से बचें।
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