Hindi Poem: वो पागल
जब भी हरी घास पे ओस की कुछ बुँदेँ नजर आती हैँ, ना जानेँ फिर कुछ यादेँ ताजा हो जाती हैँ ,फिर लालिमा के साथ सुरज आता है, ओस की बुँदोँ के साथ यादेँ भी धुंधला जाता है |
सोचता हूँ देखूँ उगते हुए सुरज को , पर ओस की बुँदेँ भी तो रोज नही आती,
जैसे जैसे दिन चढता है बुँदें उङ जाती हैँ, पर कुछ यादेँ फिर भी रह जाती हैँ |
अगले रोज घास पे बैठी तितली नजर आती है,
मेरी तरह वो भी उन बुँदोँ की बाट जोहती नजर आती है,
नहीँ जानती ‘वो पागल’ कि बुँदेँ तो क्षणिक थी बिल्कुल उसके जीवन की तरह |
ओस की बुँदेँ ना पाकर
‘वो पागल’ उदास हो जाती है,
एक भ्रमर उसे उदास ना देख पाता है, उसके आस पास मँडराता है, गुंञ्जाता है,
लगता है लङ रहा हो वो खुदा से, एक अजीब सा पागलपन उसमेँ नजर आता है,
लेकिन एक ना चलती है उसकी, वो तितली वहाँ से उङ जाती है |
वो भ्रमर अगले रोज फिर वहाँ आता है, उस तितली के इँतजार मेँ बैठा नजर आता है, लेकिन वो उसे नहीँ पाता है,
तब से वो इसी उम्मीद से हर रोज आता है कि एक रोज तो ओस गिरेगी और ‘वो पागल’ फिर से उसे मिलेगी