लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार: श्रेष्ठ होने की अवस्था ने करवाया 50 से ज्यादा दलितों का संहार

Satyampandey
Nukkad Corner
Published in
4 min readMay 21, 2021

कोई भी वर्ग जब अपने आप को हमेशा से श्रेष्ठ समझता आया हो, और उसके जैसा कोई नकल करने की कोशिश करे, तो वो व्यक्ति, वो समाज उस समाज को अथक प्रयास से दबाने, कुचलने का भरपूर प्रयास करता है, ताकि उसके श्रेष्ठ होने की आत्ममुग्धता बची रहे, भले वो श्रेष्ठ न हों। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार इसी का एक भयानक उदाहरण है।

एक राजनेता का शासन काल, जो लोगों के जेहन से अबतक निकल नहीं पाया है। वो शासनकाल था लालू प्रसाद यादव का, जो सूबे के मुखिया थे। सीबीआई द्वारा गठित कमिटी ने लालू प्रसाद यादव को सलाखों के पीछे भेज दिया था। उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार की बागडोर सौप दी थी। वो एक ऐसी महिला थीं जो अपने गृहिणी जीवन में खुश थी, लालू यादव ने उन्हें रसोई से निकाल सीधे बिहार की राजगद्दी पर बैठा दिया।

राबड़ी देवी के शासन काल में नरसंहार की वो कहानी, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह बिहार के जहानाबाद जिले (अब अरवल) के एक गांव में हुआ था। जहां कई निर्दोष के लिए कभी सुबह नहीं हुई। वो नरसंहार था लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार। जिसे लोग दलित नरसंहार के रूप में जानते हैं।

सोन नदी के तट पर बसा बाथे, बिहार की राजधानी से 90 किलोमीटर दूर जहानाबाद जिले में है। तारीख थी 1 दिसंबर 1997। दिसंबर के महीने में कड़ाके की ठंड थी, लोग अपने घरों में नींद की आगोश में किसी अनहोनी से अंजान थे।

उस रात नदी के किनारे तीन नावों से लगभग 100 लोग एक साथ उतरते हैं। जिनके हाथों में गुप्ती, तलवारें और बंदूकें लहरा रही थीं। इन्हें देख मल्लाह रो पड़े। उनका रोना कब रहस्यमयी सन्नाटें में बदल गया, किसी को पता ही नहीं चला। उनके सर धड़ से अलग कर दिये गए। इनका मकसद मल्लाहों को मारना नहीं था। इनका असली मकसद था लक्ष्मणपुर-बाथे। जहां लोग मौत की खबर से बेखबर सो रहे थे।

इस नरसंहार को अंजाम देने वाले थे रणवीर सेना के लोग। जिनके खौफ का डंका चारों तरफ बजता था। उस वक्त पटना, जहानाबद, अरवल, गया और भोजपुर को लाल इलाका कहा जाता था क्योंकि ये भाकपा-माले की जमीन थी। भाकपा-माले का संगठन उन लोगों को था जो जाति व्यवस्था के मारे थे। जो अपने अधिकार के लिए लड़ लेना चाह रहे थे। उस समय की राबड़ी सरकार सुस्त थी। जिसे राज्य के विकास से कोई खास मतलब नहीं था। भूमिहार जमींदार कहते कि जमीन तो हमारा पैतृक अधिकार है। हम क्यों बांटें। राज्य में कोई भी उद्योग नहीं लग रहा था कि जहां भूमिहीन अपने बच्चों को रोजगार के लिए भेजते।

ये भी बहुत बड़ी विडबंना है, जब देश एटम बम बनाने की सोच रहा था, तब बिहार जमीन से ऊपर कुछ नहीं सोच सकता था। आज भी बिहार में ज्यादा कुछ नहीं बदला है, आज भी जमीन विवाद के मामले हैं, आज भी जमीन विवाद के नाम पर बंदूकें निकल जाती हैं।

लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार में बेकसूरों को भी नहीं बख्शा गया था। नदी पार कराने वाले मल्लाहों को भी मार दिया गया था। ये नरसंहार बस इसलिए हुआ था क्योंकि उस गांव में कुछ लोगों के पास बंदूकें थी। बस यही गलती थी इस गांव के लोगों की। जिसने इन्हें रणवीर सेना का दुश्मन बना दिया।

यहां पर रणवीर सेना के बारे में बताना जरूरी है, वरना आप कही गलत धारणा न बना लें। रणवीर सेना सितंबर 1994 में अस्तित्व में आया था। इसकी विधिवत शुरुआत भोजपुर जिले के बेलाउर गांव में हुई थी। ऐसी मान्यता है कि रणवीर नाम बेलाउर के रणवीर बाबा से आया था, जो बेलाउल गांव के निवासी थे। ऐसी भी मान्यता है कि वे राजपूतों से भूमिहार-ब्राह्राण के अधिकारों की रक्षा करते थे। रणवीर सेना को भूमिहारों ने गरीबों को अपने नीचे रखने के लिए बनाई थी। जिससे वे अपने से नीचे तबकों वाले लोगों पर अपनी धौंस जमा सकें।

नरसंहार के शिकार हुए लोग

इस नरसंहार में 58 लोगों को गोली मार दी गई। जो गांवों के निवासी थे। तीन वो मल्लाह थे, जो नावों से अपनी जीविका चलाते थे। कुल 61 लोग इस नरसंहार के शिकार हुए थे। जिसमें 27 औरतें और 10 बच्चे मारे गए थे। ‘द वायर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, सबसे कम उम्र की डेढ़ साल की बच्ची मार दी गई थी। इस नरसंहार ने निर्ममता की सारे हदें पार कर दी थी। 10 औरतें गर्भावती मारी गईं थीं। जिनके साथ 10 बच्चें कभी दुनिया नहीं देख पाए। करीब तीन घंटे तक गोली चली। गांव में ऐसा मातम पसरा की कोई किसी के मरने पर रोने वाला भी नहीं था। घर-के-घर साफ हो गए थे।

बिहार की मुखिया ने क्या किया?

राबड़ी देवी को पटना से 90 किलोमीटर की दूरी तय करने में दो दिन लग गए थे। गांव वालों की लाशें दो दिन तक न्याय की दुहाई मांगती रहीं। मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने 3 दिसंबर को लक्ष्मणपुर-बाथे का दौरा किया। राबड़ी देवी के दौरे के बाद 3 दिसंबर को सभी शवों का अंतिम संस्कार हुआ। लाशें ट्रैक्टर में भरकर ले जाई गई थीं। ऐसी निर्मम हत्या बिहार के राबड़ी राज में हुई थी।

वादें

ये सरकारी वादें हैं, ये सरकारी फाइलों तक ही सिमट कर रह जाते हैं। हर बार की तरह राबड़ी सरकार ने भी वादों की झड़ी लगा दी। लोगों को नौकरियों और मुआवजे देने के वादें किए गए। फिर क्या था, सरकारी कार्यलायों के चक्कर काटते-काटते लोगों की एड़ियां घिस गई। लेकिन सरकार ने वादा ही तो किया था। ये थोड़ी कहा था कि वे दे रहे हैं। लोग दौड़ते रहे। कुछ नहीं मिला। यही थी राबड़ी सरकार की सच्चाई।

कुछ ऐसा था लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार , जिसने न जाने कितने घरों में सन्नाटा पसार दिया। न जाने कितने लोग मारे गए। अधिकारिक आंकड़ों में कितनी सच्चाई होती है, इससे आप सभी अवगत होंगे।

लक्ष्मणपुर बाथे गांव उस समय जहानाबाद जिला के तहत आता था, परंतु अब यह अरवल जिला के क्षेत्राधिन है।

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