नीतीश कुमार, माओवाद और उनकी नीति

Satyampandey
Nukkad Corner
Published in
11 min readAug 4, 2021

देश के कई राज्य नक्सल प्रभावित रहे हैं। आज भी कई राज्य इसके चपेट से बाहर नहीं आ पाए हैं। अभी हाल ही में कुछ दिन पहले, केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की ‘लेफ्ट विंग एक्सट्रिम्स डिवीजन’ की ओर मओवादी प्रभावित जिलों की सूची जारी की गई थी। जिसमें बिहार के 6 जिले हैं, जहां माओवादियों का प्रभाव कम हुआ है। ये जिले हैं — मुजफ्फरपुर, नालंदा, जहानाबाद, अरवल, पूर्वी चंपारण और वैशाली। लेकिन 38 में से 10 जिले अभी भी नक्सली प्रभावित हैं। इस तथ्य को भी हमें नहीं भूलना चाहिए।

इसके पहले वर्ष 2018 में समीक्षा की गई थी, जिसमें नक्सल प्रभावित देश के 126 जिलों में से 44 जिलों को नक्सल मुक्त क्षेत्र घोषित किया गया था। उस समय बिहार और झारखंड के पांच जिले अति नक्सल प्रभावित टैग से मुक्त हुए। इस बार जारी लिस्ट में सबसे अधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में झारखंड के 8 और छत्तीसगढ़ के सात जिले हैं।

नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं। उसके बाद से इनकी छवि सुशासन बाबू की बनती है। इन्हें विकास पुरुष का भी नाम दिया जाता है। लेकिन इनकी राजनीतिक सुझबुझ और गठजोड़ के कारण बिहार के राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है। बिहार में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इनसे पहले बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह और बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, इनके कार्यकाल को जंगलराज की संज्ञा दी जाती है, रही हैं।

• क्या है लेफ्ट विंग एक्सट्रिम्स डिवीजन लेफ्ट विंग ?

एक्सट्रिम्स डिवीजन का गठन 19 अक्टूबर 2006 को की गई था। इस विंग का उद्देश्य नक्सल प्रभावित राज्यों में सुरक्षा संबंधी योजनाओं को लागू करना। साथ ही उन सभी राज्यों में नक्सली गतिविधियों को लगातार मॉनिटर करता है। उस राज्य द्वारा नक्सली गतिविधियों को कम करने के लिए काम किया जाता है। लेफ्ट विंग एक्सट्रिम्स डिवीजन विभिन्न राज्यों और विभागों के साथ समन्वय स्थापित कर काम करता है। छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और केरला जैसे राज्य इस डिवीजन के अंतर्गत आते हैं।

• बिहार में माओवाद

माओवादियों के पास न केवल हथियार होते हैं, बल्कि उन्हें जिलों के कुछ हिस्सों में गरीब ग्रामीणों का समर्थन भी प्राप्त रहता है। बिहार में तीन मुख्य चरमपंथी गुटों का माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एम.सी.सी.), भा.क.पा. (मा.ले.) पार्टी यूनिटी और भा.क.पा. (मा.ले.) पीपुल्स वॉर के विलय से भा.क.पा. (माओवादी) के रूप में एक मजबूत संगठन उभरकर आया था। इनसे बाहर केवल एक प्रमुख गुट था भा.क.पा. (मा.ले.) लिबरेशन, जिसने सशस्त्र संघर्ष का मार्ग छोड़कर संसदीय मार्ग अपना लिया था। विपक्ष में बैठी एक उग्र समतावादी पार्टी होने के सिवाय यह राज्य के सामने कोई चुनौती पेश नहीं करती थी।

• माओवाद पर नीतीश कुमार की सोच

अरुण सिंहा अपनी नीतीश कुमार उभरता बिहार में लिखे हैं। नीतीश माओवाद पर अपना रुख विस्तार से इस तरह बयाँ करते हैं : “हमें यह समझना होगा कि हम लोकतंत्रवादी हैं। माओवादी विद्रोही हैं। वे कोई भी साधन अपना सकते हैं। उनका उद्देश्य है बंदूक की शक्ति के जरिए सत्ता हथियाना। क्या हम उनका अनुकरण करेंगे? क्या हम भी वहीं करेंगे जो वे करते हैं? हमें यह समझना होगा कि एक बहुत बड़ी संख्या में लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सरकारी सेवाओं से वंचित हैं। हम उन तक विकास पहुँचाने में असफल रहे हैं। राजीव गांधी के उद्धरणों में से कौन सा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है? ‘विकास निधि के एक रुपए में से केवल 15 पैसे लोगों तक पहुँचते हैं।’ इसका अर्थ क्या है कि 85 पैसे भ्रष्ट लोग हजम कर जाते हैं। क्या यह एक विडंबना नहीं है कि राजीव ने सिर्फ यह बयान दिया, परंतु 85 पैसे की बंदरबाँट को रोकने के लिए कुछ नहीं किया? इस गबन को रोकने के लिए उनकी कांग्रेस पार्टी ने क्या किया है? हम आखिरकार जनता द्वारा क्यों चुने जाते हैं — गड़बडि़यों को ठीक करने के लिए। ठीक है? इस हेरा-फेरी को कौन रोकेगा? एक चुनी हुई सरकार का बुनियादी काम यह सुनिश्चित करना है कि पूरा एक रुपया जनता तक पहुँचे। माओवाद की समस्या जटिल नहीं है। वंचित लोगों ने वह पाने के लिए माओवाद का रास्ता चुन लिया है जो चुनी हुई सरकार उन्हें देने में असफल रही है। हमें ऐसी नीतियाँ अपनानी होंगी और ऐसे कार्यक्रमों पर अमल करना होगा कि विकास उन तक पहुँचे। ऐसा होने पर माओवादी संगठन में बौद्धिक और लड़ाकू लोगों का प्रवेश अपने आप रुक जाएगा। माओवाद से लड़ने का रास्ता है ज्यादा-से-ज्यादा स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना, अपना हुनर सुधारने में लोगों की मदद करना।

• केंद्र ने माओवादी इलाकों को मुक्त करने के लिए क्या किया ?

केद्र सरकार ने नंबबर 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम से अभियान चलाया गया। यह अभियान खासकर लाल गलियारे, जिसे हम रेड कॉरिडोर के नाम से जानते है, क्षेत्र वाले पांच राज्यों में चलाया गया। जो नक्सलियों के विरुद्ध भारत सरकार की पैरामिलिटरी बल तथा राज्य बल द्वारा उन्हें आक्रामक तरीके से बाहर खदेड़ने के लिए चलाया गया था। प्रारंभ में छत्तीसगढ़ पुलिस ने यह नाम दिया था जिसे बाद में मीडिया द्वारा माओवादी नक्सलियों के विरुद्ध प्रचारित किया गया। यह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का अभियान था जिसमें कोबरा बटालियन प्रमुख भूमिका में होगी। इसमें मानव रहित हवाई वाहन तथा सेटेलाइट फोन का प्रयोग किया जा रहा है। यह दिसम्बर 2014 में भी चर्चा में आया तब नक्सलियों ने सुकमा, छत्तीसगढ़ में घात लगाकर सैन्य बलों पर हमला किया था जो ग्रीन हंट अभियान के विरोध में था। यह अभियान लाल गलियारा वाले क्षेत्रों में चलाया जा रहा है जिसमें प्रमुख हैं-छत्तीसगढ़, सीमान्ध्र, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तथा पूर्वोत्तर के राज्य।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा अगवा किए गए सुकमा जिले के कलेक्टर की रिहाई के लिए नियुक्त मध्यस्थों में से एक और पूर्व आइएएस अधिकारी बीडी शर्मा ने सरकार से अपील की कि नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान- ऑपरेशन ग्रीन हंट को तत्काल बंद किया जाए। मेधा पाटकर और भी कई लोगों ने इस अभियान को बंद करने की मांग उठाई थी।

8 जनवरी, 2016 को ऑपरेशन ग्रीन हंट अभियान को केंद्रीय सरकार की पैरामिलिटरी फोर्स ने पुनः प्रारंभ किया था।

• ऑपरेशन ग्रीनहंट पर नीतीश कुमार की राय

अरुण सिन्हा अपनी किताब में आगे लिखते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद से प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ जो बैठकें कीं, उनमें नीतीश कुमार ने जहाँ पुलिस कार्रवाई और सतर्कता का समर्थन किया, वहीं यह तर्क भी दिया कि विकास की गति को तेज करके ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। उनकी रणनीति सार्वजनिक बयानबाजी में माओवादियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई पर वास्तविक कार्रवाई की अपेक्षा कम जोर देने की थी। माओवादियों की सशस्त्र शक्ति का मुकाबला करने के लिए पुलिस की रणनीति की कार्रवाई के बारे में उन्होंने बात नहीं की।

उन्होंने केंद्र से माओवादी समस्या से निपटने की रणनीतियों पर चर्चा करने के लिए पटना में बहुत ताम-झाम वाली बैठक आयोजित न करने के लिए कहा : अगर केंद्रीय गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी पटना में राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक करना चाहते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, परंतु ध्यान रहे कि मीडिया को इसकी भनक न लगे।

नीतीश कुमार की इसी सोच को मीडिया में चिदंबरम और नीतीश के बीच मतभेदों के रूप में प्रचारित किया गया था। चिदंबरम को ‘गरमपंथी’ और नीतीश को ‘नरमपंथी’ बताया गया था। उनके बीच का यह ‘विभाजन’ और भी ‘मुखर’ हो गया जब चिदंबरम द्वारा कोलकता में आयोजित माओवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक में नीतीश उपस्थित नहीं हुए। उस बैठक में भाग नहीं ले पाने की वास्तविकता ये थे कि नीतीश का धर्मशाला में दलाई लामा से मिलने का कार्यक्रम पहले से तय था। उन्होंने यह बताते हुए कि उपरोक्त बैठक में वे क्यों उपस्थित न हो सकेंगे। चिदंबरम को पत्र लिखा, जिसमें यह भी बताया कि बैठक में उनके मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक भाग लेंगे। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि उस बैठक में जो भी निर्णय लिए जाएँगे, उन्हें वे स्वीकार करेंगे। लेकिन किसी तरह चिदंबरम ने इसे निरादर के रूप में लिया और नीतीश के नजरिए के बारे में राष्ट्रीय मीडिया को दिए गए उनकी अस्पष्ट और सांकेतिक टिप्पणियों से उन दोनों के बीच गरमपंथ और नरमपंथ के विभाजन की अटकलें और मजबूत हो गईं।

नीतीश कुमार का साफ मानना था कि उनकी सरकार हाथ धोकर माओवादियों के पीछे नहीं पड़ेगी। वह ऐसा कोई अभियान नहीं चलाएगी जिसमें झाड़ियाँ जलकर राख हो जाएँ। इसका अर्थ था उनकी सरकार बिना जाँचे-परखे इस उद्देश्य के लिए केंद्रीय सरकार द्वारा पूरे देश में चलाए जा रहे अभियान ‘ऑपरेशन ग्रीनहंट’ की हिस्सा नहीं बनेगी। उनकी सरकार एक अभियान के बजाए ‘चुनिंदा कार्यवाही’ को तरजीह देती थी : पुलिस केवल तभी कार्रवाई करेगी जब उसे कहीं पर हमला करने के इरादे से बड़ी संख्या में हथियारों के साथ इकट्ठा हुए माओवादियों को रोकना हो। इसके पीछे सोच यह थी कि पुलिस अपनी ओर से अकारण ऐसी काररवाईयाँ नहीं करेगी जो राज्य पर प्रतिशोधात्मक हमले करने के लिए माओवादियों को प्रेरित करे।

• नीतीश कुमार चाहते क्या थे?

जैसा की आप सभी को पता है नीतीश कुमार को अपनी साफ-सुथरी छवि पसंद है। उन्होंने गोधरा कांड के बाद खुद पर सभी जिम्मेदारियों को लेते हुए रेल मंत्री से इस्तीफा दे दिया था। लोकसभा चुनाव, 2014 में खुद सभी जिम्मेदारियां लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जीतन राम मांझी को बिहार की बागडोर सौप दी थी।

नीतीश के प्रयास माओवादियों के समक्ष स्वयं को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करने की दिशा में थे जो न्यायपूर्ण व्यवहार में विश्वास रखता हो और जो नृशंस और कपटपूर्ण कार्यवाहियों की इजाजत नहीं देगा। एक ऐसा व्यक्ति जो माओवादियों को ‘राज्य के शत्रु’ के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे राजनीतिक विद्रोहियों के रूप में देखता हो जिनके मानवाधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए।

माओवादियों को काबू में रखने की नीतीश की नीति के तीन मूलभूत सिद्धांत हैं : एक, पुलिस फर्जी मुठभेड़ों में किसी को नहीं मारेगी। दो, पुलिस किसी को यातनाएँ नहीं देगी। तीन, जेल में बंद किसी माओवादी को डंडा-बेड़ी में नहीं जकड़ा जाएगा।

• नीतीश कुमार के नीति की रुपरेखा

Source — Deccan Herald

प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री ने आंतरिक सुरक्षा पर नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ 14 जुलाई, 2010 को दिल्ली में तीसरी बैठक रखी। जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा: — “मैं कई राज्यों में वाममार्गी चरमपंथ के प्रति आप सब लोगों की चिंता से इत्तफाक रखता हूँ। इस समस्या के समाधान के ढाँचे पर मेरी राय यहाँ उपस्थित कुछ लोगों की राय से भिन्न हो सकती है। वामपंथी उग्रवादी तत्त्व हमारे समाज का एक हिस्सा हैं जो बहक कर हिंसा के मार्ग पर चले गए हैं। प्रवर्तन मूलक कार्रवाई उन्हें समाज से और दूर ले जाती है। इसकी जड़ों में गए बिना किया गया इलाज इस बीमारी को और ज्यादा भयानक रूप में प्रकट कर देता है। इस स्थिति को रोकने के लिए बिहार ने एक समेकित तरीका अपनाया है, जो एक प्रभावी और स्थायी समाधान के लिए एक उचित रणनीति हो सकती है। ‘गहन, सर्वांगीण विकास ही वामपंथी उग्रवाद का अंतिम समाधान हो सकता है।’ राज्य सरकार नागरिकों की सुरक्षा और उनके हितों को ध्यान में रखते हुए और साथ ही मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए कानून का राज स्थापित करने के प्रति कृत संकल्पित है। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि [भा.क.पा. (माओवादी) एरिया कमांडरों की गिरफ्तारी तथा बड़ी मात्रा में हथियारों और गोला-बारूद की बरामदगी जैसी] हमारी सभी उपलब्धियाँ मानवाधिकारों के उल्लंघन की किसी शिकायत के बिना हासिल हुई हैं।”

नीतीश कुमार की इस भाषण से ये तो साफ हो गया कि बिहार में माओवादियों के प्रति कोई हिंसात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी, बल्कि गांवों और कस्बों तक विकास पहुंचा कर उनको माओवाद से मुक्त किया जा सकता है।

• आखिर नीतीश कुमार ने क्या किया है?

नीतीश कुमार ने बहुत ज्यादा शोर-शराबा किए बिना अपनी पुलिस को मजबूत बनाने के उपाय किए। उन्होंने आंध्र प्रदेश में सशस्त्र माओवादी चुनौती का सफलतापूर्वक दमन कर चुके ‘ग्रेहाउंड्स’, की तर्ज पर एक विशेष कार्य बल (एस.टी.एफ.) स्थापित करने की स्वीकृति दी। सशस्त्र हमलावरों का मुकाबला करने के लिए उनके द्वारा हर जिले में बनाए जा रहे आदर्श पुलिस थानों की किलेबंदी की गई और अधिक पुलिसकर्मियों की भर्ती और परिष्कृत आग्नेयास्त्र, परिवहन वाहनों और संचार उपकरणों की खरीद के लिए पाँच वर्षों में पुलिस बजट लगभग दुगुना कर दिया।

इसके अलावा नीतीश कुमार ने माओवाद प्रभावित इलाके के एक गांव में अपनी योजना के प्रयोग करने का फैसला लिया। उन्होंने अधिकारियों को कहा कि हम लोग कोशिश करके देखेंगे कि वह कैसे काम करता है। वैसे भी नीतीश कुमार को लोग एक नेता कम अधिकारी ज्यादा समझते हैं। ये लगातार पांच-छः घंटे अधिकारियों के साथ मीटिंग कर सकते हैं। अधिकारियों ने मथा पेची के बाद सिकरिया गांव को चुना, जो जहानाबाद जिले में है। नीतीश कुमार ने 21 जनवरी 2006 को एक सार्वजनिक सभा में आपकी सरकार आपके द्वार नाम का प्रयोग किया। नीतीश कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री कई योजनाओं को हरी झंडी दिखाई। इस कार्यक्रम के पीछे का विचार सिकरिया को विकासात्मक और कल्याणकारी गतिविधियों जैसे — सड़कें, सिंचाई, आवास, स्कूल, स्वास्थ्य, मानव संसाधन विकास से लाद देना था।

सिकरिया मॉडल देख कर दिसंबर 2008 के मध्य में तेरहवें वित्त आयोग के एक सदस्य वी. भास्कर ने टिप्पणी की, “साफ कहूँ तो सिकरिया ग्रामीण क्षेत्र विकास योजना दूसरों के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन सकती है।”

Source — The New Indian Express

• क्या है सच्चाई?

नीतीश कुमार को हमेशा से ऐसा लगता है कि लोगों को आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाए तो लोग खुद ब खुद विकसित हो जाएगे। लेकिन बिहार में पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री रहने के बावजूद भी वे अपने इन प्रयासों में सफल होते नहीं दिखाई देते हैं। नीतीश कुमार ने विधानसभा 2015 के दौरान लोगों को सात निश्चय के माध्यम से आधारभूत सुविधाओं में से एक हर घर तक शुद्ध पेयजल पहुंचाने का वायदा किया था। इस योजना पर काम भी किया गया। जमीनी हकीकत आपको इस आलेख में पढ़ने को मिल जाएगा।

अभी जनता के दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम में सबसे अधिक मामले नल जल की योजना का ही आया। कहीं लोगों के घर तक पाइप है तो नल नहीं, कहीं नल है तो नल में पानी नहीं, कहीं कुछ भी नहीं पहुंचा है।

जब कोई मुख्यमंत्री ऐसी बाते करता है तो जनता को उससे में विश्वास खुद-ब-खुद बढ़ जाता है। लोगों को लगता है कि ये हमारी समस्याओं को सुनेगा और उसपर काम करेगा। लेकिन ऐसा बहुत ही कम बार होता है। बिहार में विपक्ष हमेशा सत्ता पक्ष पर सरकारी पैसे के बंदरबांट पर आरोप लगाता है।

हाल ही में नीतीश कुमार ने जनसंख्या नियंत्रण कानून पर हो रही चर्चाओं के जवाब में कहा कि कानून बनाने से जनसंख्या नियंत्रित नहीं हो सकती। नीतीश कुमार का मानना है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है। नीतीश ने कहा कि तमाम सर्वे और रिसर्च देखिये। जब पत्नी मैट्रिक पास है तो प्रजनन दर देश भर में दो था। बिहार में भी यही था। पत्नी अगर इंटर तक पढ़ी है तो रिसर्च में प्रजनन दर देश में 1.7 और बिहार में 1.6 आया। नीतीश ने कहा कि पहले प्रजनन दर 4 थी फिर तीन हुई। अनुमान है कि 2040 तक यह गति नहीं रहेगी। यह कम होगी। उसके बाद इसका घटना भी शुरू होगा।

--

--