सेनारी नरसंहार: कौन हैं 34 लोगों के मौत के जिम्मेदार

Satyampandey
Nukkad Corner
Published in
4 min readMay 22, 2021

ऐसा कहा जाता है कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं। कुछ ऐसी ही हालत भारत में न्यायालयों की है, जहां देर तो होती है लेकिन कभी भी आरोपी बख़्शा नहीं जाता। न्यायिक सिद्धांत में अक्सर यह कहा जाता है कि भले 100 गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। हो सकता है यही वजह हो कि हमारे यहां तथ्यों के संपूर्ण अवलोकन के बाद ही किसी को सजा दी जाती है, जिससे आपाराधिक और गैर-आपाराधिक मामले सालों-साल चलते रहते हैं।

न्यायालय का फैसला

हाल ही में, पटना उच्च न्यायालय ने 22 सालों बाद बिहार की बहुचर्चित ‘सेनारी नरसंहार’ के सभी 13 आरोपियों को बरी कर दिया है। जस्टिस अश्वनी कुमार सिंह और जस्टिस अरविंद श्रीवास्तव की खंडपीठ ने लंबी सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था। जिसे 21 मई, शुक्रवार को सुनाया। पटना उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को रद्द करते हुए सभी 13 दोषियों को बरी कर दिया। आपको बता दें कि जहानाबाद जिला अदालत ने 15 नवंबर 2016 को इस मामले में 10 आरोपियों को मौत की सजा सुनाई थी। जबकि 3 आरोपियों को उम्र कैद के साथ-साथ एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया था।

Source — Navbharattimes

परिस्थितियां

देश 21वीं सदी के मुहाने पर खड़ा था। 1977 के बाद देश में दूसरी बार गैर-कांग्रेसी सरकार, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में, भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन की सरकार बनी थी। अटल सरकार अपनी पहली वर्षगांठ पर अपने कामों का ब्यौरा लोगों के समक्ष रख रही थी। उस समय भारत के ही एक राज्य में लोग प्रतिशोध की आग में जल रहे थे। वो राज्य था बिहार। जिला था जहानाबाद। गांव था सेनारी। तारीख थी 18 मार्च 1999। राज्य की मुखिया थी राबड़ी देवी।

लड़ाई की वजह

लड़ाई थी भूमिहारों और भूमिहीनों के बीच। उस दौर में जब राजे-राजवाड़े होते थे, जमींदारों की हुकुमत चलती थी। भूमिहारों के पास जमीन थी। जिसे वो अपने बाप-दादा या पुर्वजों की मिल्कियत समझते थे। तो वहीं दूसरी तरफ, भूमिहीनों का कहना था सबकुछ छीना हुआ है। धोखे से। जबर्दस्ती से। लोगों को मूर्ख बना के।

मार्मिक

सेनारी हत्याकांड में एक चीज बड़ी तड़पाने वाली थी। जमीन का संघर्ष अपनी जगह था। लेकिन सेनारी गांव में भूमिहार और भूमिहीन के बीच झगड़ा नहीं था। सभी लोग आपस में खुशी से रहते थे। जहां आसपास के गांवों में एमसीसी सक्रिय थी, वही इस गांव में कोई तनाव नहीं था। 300 घरों के गांव में 70 भूमिहार परिवार ‘मजदूर’ पड़ोसियों के साथ बड़ी शांति से रहते थे। हो सकता है यही वजह रही हो इस गांव में नरसंहार की। शांति सबको पसंद नहीं होती है। शांति प्रिय देश में शांति ही लड़ाई का कारण भी बन गई।

Source — Hindustan

हुआ क्या था?

उस रात सेनारी गांव में एमसीसी के हथियारबंद करीब 500 से 600 लोग घुसते हैं। गांव को चारो तरफ से घेर लेते हैं ताकि कोई भाग न पाए। घरों से खींच-खींच कर मर्दों को बाहर लाया जाता है। कुल 40 मर्दों को चुना जाता है। इन लोगों की जुबान नहीं खुलती है। आधी रात में अचानक ही कोई आपको अपने घर से खींच कर बाहर ले जाए तो आप कुछ देर तक समझ ही नहीं पाएंगे, ये हो क्या रहा है। ये मुझे क्यों खींच कर निकाल रहे हैं। आप हतप्रभ होकर देखते रहेंगे।

उन्हें घसीट कर गांव के बाहर ले जाया जाता है। वे तीन समूहों में विभाजित हो जाते हैं। सबको खींच कर खड़ा किया जाता है। फिर निर्ममता की सारी हदें पार की जाती है। एक-एक कर बारी-बारी से हर एक का गला काटा जाता है। फिर पेट चीर दिया जाता है।

कितने लोग मरे थे?

स्वर्ण जाति के 34 लोग मारे गए। 6 लोगों को वहीं तड़पता छोड़ दिया गया। बदले की आग ऐसी थी कि एमसीसी ने लोगों को लाठी-डंडे या गोलियों से नहीं मारा। बल्कि उन्हें निर्मम तरीके से काट-काट कर मार डाला।

राजनीतिक परिस्थितियां

उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों का जिक्र करना भी जरूरी है। इस घटना से पूर्व राज्य ने एक और नरसंहार झेला था। जिसे राज्य सरकार की विफलता समझते हुए, अटल सरकार ने राज्य में 11 फरवरी से 9 मार्च, 1999 तक राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। ये राष्ट्रपति शासन और ज्यादा दिनों तक लागू रहता तो हो सकता है, ये सेनारी नरसंहार रुक जाता। 9 मार्च को फिर से बिहार की बागडोर राबड़ी देवी के हाथों में आ जाती है। उनके पदभार ग्रहण करने के 9 दिनों के बाद सेनारी नरसंहार होता है। जिसमें अगड़ी जाति के 34 लोगों की गला रेत कर हत्या कर दी जाती है।

--

--