बातें गीतों की

Hindi Kavita
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4 min readDec 6, 2017

गीत: ऐ मेरे दिल कहीं और चल..
फ़िल्म: दाग
निर्देशक: अमिया चक्रवर्ती
गीतकार: शैलेन्द्र
संगीतकार: शंकर-जयकिशन
गायक: लता मंगेशकर, तलत महमूद

यह सब शंकर के एक कॉल के साथ शुरू हुआ ….

“म्यूज़िक रूम में फ़ौरन आओ”

शैलेंद्र मशहूर स्टूडियो महालक्ष्मी की तरफ़ आ रहे थे … जैसे ही वह पहुंचे, उन्हें सूचना दी गई… यह गीत अमिया चक्रवर्ती के लिए था……

शंकर, जयकिशन, हसरत और शैलेंद्र अमिया चक्रवर्ती से थोड़े डरे से थे।

उन्होंने पहले भी अमिया चक्रवर्ती के साथ एक फिल्म ‘बादल’ में काम किया था।

वह एक निर्देशक थे, जो साधारण कहानी में विश्वास करते थे … कोई तामझाम शॉट नहीं, कोई दिखावा नहीं …. बस दर्शकों को एक अच्छी कहानी सुनाओ!

वह एक ऐसे फ़िल्मकार थे, जो इस बात में यक़ीन करते थे कि संगीत में वो ताक़त है, जिससे कहानी कहने के अंदाज़ को बेहतरीन बनाया जा सकता है।

ज़रूरत कुछ ऐसी थी कि शैलेंद्र को कुछ ही घंटों में गाना लिखने को कहा गया! दत्ताराम को शैलेंद्र के साथ भेजा गया था ताकि वह उन्हें धुन दे सके (पोर्टेबल टेप-रिकॉर्डर इसके कई सालों बाद आए।)

शैलेंद्र दत्ताराम को हैगिंग गार्डन ले गए… एक साक्षात्कार में दत्ताराम ने यह बताया है कि गीत कैसे लिखा गया था। वे धुन को गुनगुनाते रहे, और शैलेंद्र सिगरेट पीते रहे, सिगरेट पर सिगरेट और ख़्याल पर ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश करते रहे।

अंततः, वे दत्ताराम के पास गए और कहा …

“दत्तू, कुछ आया…”

उन्होंने जल्दबाज़ी में अपनी नोटबुक खोली और अपनी क़लम निकाली।

तब ही एक घटना घटी।

शैलेंद्र का दिमाग़ विचार और शब्दों के साथ दौड़ रहा था, लेकिन उनकी क़लम में स्याही नहीं थी!!! ऐसे हालात की कल्पना करें आप…. हैंगिंग गार्डन के बीच में और बिना क़लम के अटके हुए…

कवि इतनी आसानी से कहाँ छोड़ता है… उन्होंने चारों ओर देखा और मुस्कुराया….. जली हुई माचिस की तीलियों और सिगरेट के बचे हुए हिस्से को उठाकर, राख़ के साथ, शैलेंद्र ने अपनी डायरी में लिखा…

“ऐ मेरे दिल कहीं और चल
ग़म की दुनिया से दिल भर गया, ढूँढ़ ले अब कोई घर नया
ऐ मेरे दिल कहीं और चल”

अंतरा

“चल जहाँ ग़म के मारे न हों, झूठी आशा के तारे न हों
उन बहारों से क्या फ़ायदा
जिस में दिल की कली जल गई, ज़ख़्म फिर से हरा हो गया
ऐ मेरे दिल कहीं और चल…”

“चार आँसू कोई रो दिया, फेरके मुँह कोई चल दिया
लुट रहा था किसीका जहाँ
देखती रह गई ये ज़मीं, चुप रह बेरहम आसमाँ
ऐ मेरे दिल कहीं और चल…”

यह गाना सुनने में आसान है…. अच्छा लगता है … थोड़ा निराशाजनक….

निराशाजनक???

यह आपके मन की अवस्था है ….. एक ही गीत को देखने के दो तरीक़े हो सकते हैं …

निराशाजनक या आशावाद…

यह एक बहुत ही अद्भुत गीत है …. ‘मुखड़ा’ उम्मीदों से भरा है … इसके अंतरे उतने ही सच हैं, जितना सच जीवन हो सकता है…

इस गीत के दो संस्करण हैं … उदासी भरा और ख़ुशियों से भरा…

उदासी भरे संस्करण में, नशे में धुत दिखने वाले दिलीप कुमार एक बार से निकलते हैं… एक आवारा कुत्ते के साथ अटपटी बात करते हैं और अपने रास्ते पर चले जाते हैं…

एक फ़िल्मकार बनने की चाहत रखनेवाले के तौर पर, मैं कल्पना कर सकता हूं कि अमिया दा ने दिलीप कुमार (उनकी खोज) और उनके सिनेमैटोग्राफ़र को क्या कहा होगा …. दिलीप कुमार को, उन्होंने कहा होगा,

“गीत सुनें और वैसा ही करें जैसा आपको महसूस होता है”

अपने सिनेमैटोग्राफ़र के लिए उन्होंने कहा होगा….

“बस दिलीप कुमार को ग़ौर से देखें…. जहाँ कहीं उनकी इच्छा हो, हम वहीं शॉट को काट देंगे….”

उदासी वाले संस्करण में शंकर-जयकिशन का संगीत बिल्कुल सही है… उदास सुनाई पड़नेवाले डबल बास और गीत वायलिन मूड को सेट करते हैं… शायद ही कभी इस्तेमाल किया क्लैरिनेट और मेन्डोलिन इसमें शामिल किए गए हैं… तलत महमूद की आवाज़ एकदम सही है….

दिलीप कुमार केवल उतना ही काम करते हैं, जितना वह कर सकते हैं….. उनकी भावभंगिमा उनके चेहरे की अभिव्यक्ति से अलग है….. शरीर अधोमुख हुआ पड़ा है… इसने हार मान लिया है…. शराब ने उन्हें मुसकुराता हुआ रखा है…. यह संस्करण स्पष्ट रूप से जीवन से हार मान लेने के बारे में है…. इस क्रूर दुनिया को छोड़ने की चाहत रखनेवाला एक आदमी…. झूठी उम्मीदें … क्रूरता जिसकी क्षमता इन्सानों में है…. वे आपकी दुर्दशा पर कुछ आँसू बहा सकते हैं, या बस आप से दूरी बना सकते हैं….

हमारे बीच में कुछ लोग , पूरी तरह से ख़ुद के साथ जोड़ सकते हैं… हिम्मत हार सकते हैं और सब कुछ धूसर-धुँधला लग सकता है, अंधेरा…. आशा केवल मौत में है…. यह शाश्वत शांति का एकमात्र स्थान है…. यूटोपिया ….

अमिया चक्रवर्ती पहले अपनी कहानी बताते हैं, और उनकी फिल्म के अंत के लिए एक और संस्करण को पर्दे पर लाते हैं…. ख़ुशियों से भरा संस्करण…

एक अकॉर्डियन (गूडी सेरेवाई) ने एक नई शुरुआत करते हैं… लय तेज़ है …. दिलीप कुमार तेज़ी से आगे बढ़ते हैं …… निर्देशक, संगीत निर्देशक, तलत महमूद और गीतकार सब ये दिखाने को उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि मुख्य पात्र, दिलीप कुमार, ने यूटोपिया को धरती पर ही ढूँढ लिया है…..!

फ़िल्म इसी हैप्पी नोट पर समाप्त होती है…..

अमिया चक्रवर्ती शैलेंद्र को इस संस्करण के लिए अलग शब्द लिखने के लिए कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा….. वह इस सोच के साथ बंधे दिखना चाहते थे कि दुनिया कितनी क्रूर और बेरहम हो सकती है… लेकिन अगर कोई सही दिशा में देखता है , इस धरती पर ही शांति और सुख पा सकता है …..

खोजो और तुम्हें ज़रूर मिलेगा… कभी हार न मानो……

जी लो.….

(लेखक: दिनेश शंकर शैलेन्द्र

अनुवाद: धीरज कुमार)

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