हुस्न-ए-दरबान : तिल 

Written By: Janak M. Desai

हुस्न-ए-दरबान : तिल

हुस्न-ए-दरबान है, उसे बेताज न समझना,

मेरे गाल पे छाये तिल को दाग न समझना |

कातिल होते भी वो तिल खुद कहां जाने !

मासूम है उसके वार, गुनाह न समझना |

जख्म जो पाते है, उन्हें एतराज नहीं होता,

चाहते-दर्दे-दिलों को बरबाद न समझना |

लर्जिश-ए-होंट पर ही पढ़ लेना उनका इकरार,

आशिक की ख़ामोशी को इनकार न समझना

दरबान-ए-दौलत-ए-हुस्न को कौन पहचाने !

जौहरी है सनम, नज़र को कम न समझना

… जनक

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