हुस्न-ए-दरबान : तिल
Written By: Janak M. Desai
Published in
1 min readNov 24, 2013
हुस्न-ए-दरबान : तिल
हुस्न-ए-दरबान है, उसे बेताज न समझना,
मेरे गाल पे छाये तिल को दाग न समझना |
कातिल होते भी वो तिल खुद कहां जाने !
मासूम है उसके वार, गुनाह न समझना |
जख्म जो पाते है, उन्हें एतराज नहीं होता,
चाहते-दर्दे-दिलों को बरबाद न समझना |
लर्जिश-ए-होंट पर ही पढ़ लेना उनका इकरार,
आशिक की ख़ामोशी को इनकार न समझना
दरबान-ए-दौलत-ए-हुस्न को कौन पहचाने !
जौहरी है सनम, नज़र को कम न समझना
… जनक