कल, आज और कल

Tulika Verma
sardikidhoop
Published in
2 min readSep 24, 2023

चाँदनी थी धवल, शीतल थी वात

शिथिल से उस क्षण में मन कर रहा था संवाद

धूल मिट्टी से भरी पगडंडियाँ अब नहीं हैं

भीगे खस से ढंकी खिड़कियाँ अब नहीं हैं

गाँव तो वही है, बस वो बचपन कहीं लुप्त है

उन्मुक्त ठहाकों में जो बीता, सुहाना कल कहीं लुप्त है

आज स्वप्न सारे मेरे सत्य बनकर हैं खड़े

सफलता के आभूषण पर समृद्धि के हैं रत्न जड़े

एक एक करके मैंने ‘संभव’ को परिभाषित किया

नित्य बढ़ती हुई गति से ठहराव को पराजित किया

सागर की गहराई को, अम्बर के विस्तार को

सूरज के प्रकाश और मेघ की हुंकार को

साध कर यंत्रों से भेद मैंने जाने हैं

लाभ और विलास के मायने पहचाने हैं

अकारण ही नहीं इतना दंभ है ये मेरा

त्याग और परिश्रम का स्तम्भ है ये मेरा

पर क्या हिल रहा है ये स्तम्भ

खुशियों के पीछे भागा था, सपनों की होड़ में

क्या समय था मुझसे आगे, उस निरंतर दौड़ में?

आज भी क्यूँ ख़ुशी, दूर होती है प्रतीत

क्यूँ सुनहरा लगता है मुझको, वो अविकसित अतीत

गाँव की सड़कों के संग बदल गए हैं वो विचार

जो बाँधते से मन से मन को, संबंध वो निर्विकार

चैन और विश्राम के पल हो गए हैं गौण क्यों

विवेक के विचलित से स्वर हो रहे हैं मौन क्यों

भौतिकता के रास्ते में, कल वो दिवस न आ जाए

मानव की भावनाएं, यन्त्र -चालित हो जाएँ

लाभ हानि की तुला में, नप न जाए सत्य भी

उन्नति की मृग तृष्णा में, खो न जाएँ तथ्य भी

एक भोर तो आयेगी इस रात्रि के भी बाद

जब सुन सकेगा मानव अपने मन का ये संवाद

कल के पीछे भागता वो कुछ पल को ठहर जायेगा

उस कुछ पलों के आज में जीवन का सार भर जायेगा

Originally published at http://sardeekeedhoop.blogspot.com.

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