लेखन और मैं

Tulika Verma
sardikidhoop
Published in
2 min readSep 23, 2023

आज समंदर की लहरों में चलते चलते विचार आया कि जो कभी बहाव हुआ करता था, आज प्रयास बन गया है। जीवन बस बाहरी दबाव के बावजूद अंदरूनी दबाव को मानने की जंग है। इस खींच तान में अक्सर हारती रही हूँ। जब इन बातों की समझ आई तब सामाजिक कार्य से जुड़ गई। शायद जो कलम के माध्यम से करना निर्धारित था वहीं संस्था के नेतृत्व के माध्यम से करने लगी। गांधी ने कहा था कि बदलाव हमेशा स्वयं से शुरू होता है। शिक्षा में कार्य करते समय इस बात को बहुत व्यक्तिगत और गहन रूप से समझा।

एक लेखिका और एक समाजसेविका कई रूपों में एक जैसी होती हैं। दोनों के कार्य में आंदोलन होता है। जब सहज रूप से लिखती थी तब कभी इसके बारे में नहीं सोचा लेकिन अब सोचती हूँ तो लगता है कि बिहार के उन छोटे शहरों के समाज में एक स्वतंत्र स्वभाव की किशोर लड़की का लेखन ही आंदोलन था। वह न सिर्फ दृश्य बने रहने से इनकार था बल्कि दर्शक बनकर टिप्पणी करने का और अपनी आवाज़ के लिए जगह बनाने का प्रयास था। लेखन और समाज सेवा में यह भी समानता है की दोनों कार्य अगर पूरी निष्ठा के साथ किए जाएँ तो फल से ज़्यादा प्रभावशाली प्रक्रिया हो जाती है।

सामाजिक आंदोलन के मार्ग पर चलने का कोई पश्चत्ताप नहीं है पर लेखन से बनी दूरी चुभती है। लगता है जैसे एक दैविक उत्तरदायित्व था जिसके साथ काफ़ी लापरवाही कर दी, जैसे वह रचनात्मक शक्ति प्रतीक्षा करते करते उठ कर विदा हो गई। उसी को बहला फुसला कर लौट कर लाने का प्रयत्न कर रही हूँ। हम सफल लेखकों की जीवन यात्रा अक्सर सुनते हैं। उनमें एक समानता होती है — उन्हें अपने इस उत्तरदायित्व का ज्ञान कम उम्र से होता है और या तो जीवन का बहाव उन्हें परिवेश के सहयोग से रचनात्मकता की ओर ले जाता है, या फिर उनमें उसके लिए लड़ने की दूरदर्शिता और साहस होता है।

ऐसा तो नहीं होगा कि कम साहस वाले और पथभ्रमित लोग नहीं होंगे। वह भी होंगे और शायद मेरी इस टेढ़ी मेढी यात्रा से सहानुभूति रखेंगे। इस आवाज़ का कुछ तो महत्त्व होगा।

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