पिंजरा या प्यार- तेरा दर्पण, तू सँभाल
तेरा प्यार बदलकर कब मात्र जीने की वजह बन गया, पता नहीं.
प्यार के दो रूप न्यारे.
अगर प्यार बहुत किया, तो पकड़ कर तुम्हें ही दायरे में बाँध दिया. दूसरा, प्यार इतना किया कि हर दायरा अपनी हस्ती तोड़ तेरी हस्ती में जा मिला.
चलो, बात करते हैं उस पंछी की लम्बी उड़ान की जिसने तुम्हारी प्यार की नज़र को तार-तार या पाक-पाक कर दिया.
पाक-पाक या तार-तार कर दिया?
वह लम्हा, वह एहसास- तुम्हारा था. अगर वहाँ तक का सफ़र आख़िरी मान कर वापिस चला आता, तो रहस्य साफ था.
ज़िद, पाने की फिराक़, खुदाई में नहीं खुदा में खुदा को पाने की चाहत — लफ़्ज़ों की हक़ीक़त को सच्चाई मान मन से नाता तोड़ लिया.
पिंजरा या प्यार- तेरा दर्पण, तू सँभाल?
उस चाय वाले के साथ यह मेरी पहली मुलाक़ात थी. बरगद के पेड़ से सटे होने पर लोगों का जमघट लगा रहता था.
एक दिन सुबह सर्दी के मौसम में हम दोनो एक दूसरे को भाँपने के नज़रिए से बातें कर रहे थे. चर्चा के आख़िर तक पहुँचते हुए मेरा ध्यान पास रखे पिंजरे पर गया. पिंजरे में एक तोता था.
मन के हाव-भाव पढ़ते हुए, उसने मेरे पूछने का इंतेज़ार नहीं किया.
रमेश: मुझे पंछियों से बहुत प्यार है. इनकी लंबी उड़ान मुझे मंत्र-मुग्ध कर देती है. शायद इसलिए इनसे इतना प्यार करता हूँ.
मुझ जैसे कोई इनकी देख-भाल नही कर सकता. कल ही एक नया पिंजरा लेकर आया हूँ 800 रुपये खर्च कर. मुझे याद नही अपने लिए इतना महँगा सामान कब खरीदा था.
रमेश और मेरी जान-पहचान या उसके आभाव को पार करते हुए, मैने यह सवाल रखा:
“तुम उस पंछी को आज़ाद क्यों नहीं कर देते”?
उसके जवाब देने के अंदाज़ से दोनो के बीच की सिमटती दूरियों का एहसास हो गया था. परंतु मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला था.
रमेश: अरे, भाई साहब! इस पर कुल-मिलाकर 1,000 रुपये खर्च किए हैं. उस की कीमत कब वसूल होगी.
कहाँ उसका प्यार खींच कर उँचे आसमान तक ले गया. जब गिरा तो आते हुए पंछी को पिंजरे में क़ैद कर लाया.
उसका प्यार जो क़ि बहुत था- कैसे पंछियों की तरह खुली हवा में उड़ने से लेकर पिंजरे के गलियारों में आते-आते खो गया.
रमेश का ध्यान प्यार से भटककर कहीं ओर जा लगा था.
“अब पिंजरे की बुनियादी ज़रूरतों को भी तो पूरा करना था”.
पास खड़े लोग चाय की चुस्कियां लेते हुए तोते के साथ खेल रहे थे.
मैं आज फिर चाय पीने के बहाने कहीं दूर निकल गया था.