वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता — अकबर इलाहाबादी

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
4 min readSep 8, 2016

अगर मज़हब खलल -अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हा रहें दैर ओ मसजिद में

या

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो

अकबर इलाहाबादी और इंक़ेलाब, एक ही बात है। दक़ियानूसी ख़यालात, कट्टरपन और मज़हबी ढोंग से इन्हें सख़्त चिढ़ थी और जितना मुमकिन हो अपने सुख़न के ज़रिये इसकी मुख़ालफ़त करते थे।

रंग-ऐ-शराब से मेरी नियत बदल गई
वाइज़ की बातें रह गयीं, साक़ी की चल गयी

शायरी के मज़ाहिया रंग में अक्सर तीखे तंज करते थे। 1857 को बचपने में देखा और सुना, और जो कुछ कच्चा-पक्का समझ आया उसे जवानी में बहैसियत एक इंकेलाबी, गांधीजी की रहनुमाई में आज़ादी की तहरीक के नाम कर दिया।

चुटकियाँ, चुहलबाज़ियाँ, हाज़िर-जवाबी और आला दर्ज़े का humour इनकी ख़ासियत रही है. इन्हें बिला-शक हिंदुस्तान के सबसे मज़ाहिया शायरों में गिना जाता है. इसका नमूना देखें:

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूँ है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

और

मयख़ाना-ए-रिफ़ार्म की चिकनी ज़मीन पर
वाइज़ का ख़ानदान भी आख़िर फिसल गया
कैसी नमाज़, बार में नाचो जनाब शेख़
तुमको ख़बर नहीं कि ज़माना बदल गया

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या

शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मंगा ली जायेगी

अकबर इलाहाबादी का जन्म 16 नवम्बर 1846 को इलाहाबाद के क़रीब एक छोटे से गाँव बड़ा में एक इज़्ज़तदार घराने में हुआ। इनकी इब्तेदाई तालीम अपने वालिद सैय्यद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन के हाथों घर पर ही हुई। 10 बरस की उम्र में इनका दाख़िला इलाहाबाद के जमना मिशन स्कूल में करवा दिया गया, लेकिन दसवीं जमात की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी के स्कूल छोड़ दिया और जल्द ही इनकी शादी 15 बरस की कमसिन उम्र में अपने से 2–3 बरस बड़ी लड़की से कर दी गई। इनकी शादी ज़्यादा दिन नहीं चल पायी और जल्द ही इन्होंने बीवी से अलहदगी इख़्तेयार कर ली और दूसरा ब्याह रचा लिया।

तअल्लुक़ आशिक़ ओ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीवी मियाँ हो कर

या

कहाँ अब वो लुत्फ़-ऐ-बाहमी है, मोहब्बतों में बहुत कमी है
चली है कैसी हवा इलाही, के हर तबियत में बरहमी है
मेरी वफ़ा में है क्या तज़लज़ुल, मेरी इताअत में क्या कमी है?
ये क्यों निगाहें फिरी हैं मुझसे, मिज़ाज में क्यों बरहमी है ?

17 बरस की उम्र में पहली नौकरी हासिल की। अकबर बचपन से ही निहायत होशियार थे, जिस के चलते पहले काबूस (copyist), फिर क़ारी (Reader), फिर तहसीलदार और 1980 में मुन्सिफ़ भी रहे।

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए

कहते हैं जवानी मशकूक (dubious) सोहबत में और हंगामाख़ेज़ बिताई। दो शादियों करने के बावजूद भी इनकी रूमानी ज़िन्दगी तंग आवारा गलियों से गुज़रती रही।

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

या

मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
हँस के तुम से बोल तो लेते हैं और हम क्या करें

40 की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते सब्र-ओ-क़रार को हासिल हुए और दीन-ओ-मज़हब की फ़िक्र शुरू की जिसका फ़ायदा इनकी रूह को भी हुआ और मुआशरे को भी।

रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद

अकबर मशरिक़ को मुत्तहिद होने के लिए कहते हैं और सदा दे रहे हैं के २० वीं सदी के लिए तैयार हो जाओ -

जो देखी स्टडी इस बात पर कामिल यक़ीन आया
जिसे मरना नहीं आया उसे जीना नहीं आया

हालांकि अकबर निहायत ज़िंदादिल और ख़ुश-मिज़ाज शायर थे लेकिन अपने बेटे और पोते की बेवक़्त मौत से टूट से गए थे और नौकरी से भी वक़्त से पहले रिटायरमेंट ले ली। बिगड़ी सेहत और कबीदगी के चलते इलाहाबाद में 9 सितंबर, 1921 को इनका इन्तेक़ाल हो गया ।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ

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