एक शख़्सियत: दिल्ली के उस्ताद शायर शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ‘ज़ौक़’

Javed Alam
Urdu Studio
Published in
4 min readSep 25, 2016

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लाई हयात आये कज़ा ले चली चले ,
अपनी ख़ुशी न आये ,न अपनी ख़ुशी चले !!

1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर एक बच्चे की पैदाइश हुई तो उस वक्त रमज़ान ने भी नहीं सोचा था कि ये बच्चा बड़ा होकर शायरी में मुग़ल बादशाह का उस्ताद बनेगा। शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ‘ज़ौक़’ की गिनती उर्दू के महान शायरों में होती है। महज़ 19 साल की ही उम्र में इन्हें मुग़ल दरबार के शाही शायर के तौर पर चुना गया था। शायरी में ये मुहावरों और शब्दों के बेहतरीन इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं। अपने वक्त के शायर ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ और उस्ताद ‘ज़ौक़’ की अदबी दुश्मनी मशहूर है। उस समय ‘ज़ौक़’ की शोहरत ‘ग़ालिब’ से ज़्यादा थी। शायरी में ‘ज़ौक़’ महान शायर और आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के उस्ताद भी रहे।

बादशाह की उस्तादी ‘ज़ौक़’ को किस क़दर महँगी पड़ी थी, यह उनके शागिर्द मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद की ज़बानी सुनिए:

‘‘वह अपनी ग़ज़ल खुद बादशाह को न सुनाते थे। अगर किसी तरह उस तक पहुँच जाती तो वह इसी ग़ज़ल पर खुद ग़ज़ल कहता था। अब अगर नयी ग़ज़ल कह कर दें और वह अपनी ग़ज़ल से पस्त हो तो बादशाह भी बच्चा न था, 70 बरस का सुख़न-फ़हन था। अगर उससे चुस्त कहें तो अपने कहे को आप मिटाना भी कुछ आसान काम नहीं। नाचार अपनी ग़ज़ल में उनका तख़ल्लुस डालकर दे देते थे। बादशाह को बड़ा ख़याल रहता था कि वह अपनी किसी चीज़ पर ज़ोर-तबअ़ न ख़र्च करें। जब उनके शौक़े-तबअ़ को किसी तरफ़ मुतवज्जह देखता जो बराबर ग़ज़लों का तार बाँध देता कि तो कुछ जोशे-तबअ़ हो इधर ही आ जाय।’’

शाही फ़रमायशों की कोई हद न थी। किसी चूरन वाले की कोई कड़ी पसंद आयी और उस्ताद को पूरा लटका लिखने का हुक्म हुआ। किसी फ़क़ीर की आवाज़ हुजूर को भा गयी है और उस्ताद पूरा दादरा बना रहे हैं। टप्पे, ठुमरियाँ, होलियाँ, गीत भी हज़ारों कहे और बादशाह को भेंट किये। खुद भी झुँझला कर एक बार कह दिया :

ज़ौक़ मुरत्तिब क्योंकि हो दीवां शिकवाए-फुरसत किससे करें
बाँधे हमने अपने गले में आप ‘ज़फ़र’ के झगड़े हैं

जहाँ तक ‘ग़ालिब’ से उनकी अदबी नोक झोंक कि बात है तो ये साफ़ करना ज़रूरी है कि इसमें कोई शक नहीं कि एक ही वक्त के बड़े शायरों में कुछ न कुछ अदबी नोक झोंक होती ही है और ‘ज़ौक़’ ने भी कभी मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की छेड़-छाड़ की बादशाह से शिकायत कर दी थी, लेकिन इन दोनों की अदबी रक़ाबत में न तो वह भद्दापन था जो ‘इंशा’ और ‘मसहफ़ी’ की रक़ाबत में था, न इतनी कड़वाहट जो ‘मीर’ और ‘सौदा’ में, बावजूद इसके कि ‘मीर’ और ‘सौदा’ एक-दूसरे के कमाल के क़ायल थे, ये बात कभी-कभी ही दिखाई देती है। हकीकत यह है कि ‘ज़ौक़’ और ‘ग़ालिब’ दोनों ने एक दूसरे को बड़ा शायर माना हैं। जैसा कि हर ज़माने के शायर एक दूसरे के कमाल के क़ायल होते हैं, यह दोनों बुजुर्ग भी एक-दूसरे के प्रशंसक थे।

अपने एक ख़त में उन्होंने ‘ज़ौक़’ के इस शे’र की तारीफ़ की है :

अब तो घबरा के ये कहते हैं के मर जायेंगे,
मर के भी चैन ना पाया तो किधर जायेंगे,

और उधर ‘ज़ौक़’ भी मुँह-देखी में नहीं बल्कि अपने दोस्तों और शागिर्दों मैं बैठकर कहा करते थे कि मिर्ज़ा (ग़ालिब) को खुद अपने अच्छे शेरों का पता नहीं है और उनका यह शेर सुनाया करते थे:

दरियाए-मआ़सी तुनुक-आबी से हुआ खुश्क
मेरा सरे-दामन भी अभी तक न हुआ था।

(दरियाए-मआ़सी=पाप की नदी, तुनुक-आबी=जलाभाव)

ज़ौक़ ने मीर को हमेशा बड़ा शायर माना और कहते हैं-

ना हुआ पर ना हुआ मीर का अंदाज़ नसीब
ज़ौक़ यारों ने बहुत ज़ोऱ ग़ज़ल में मारा

बहादुर शाह ज़फर के साथ साथ दिल्ली के एक पुराने रईस और मिर्ज़ा ग़ालिब के ससुर नवाब इलाही बख़्श खां ने इन्हें बुलवाया और ज़ौक़ को अपनी ग़ज़लें दिखाने लगे.। ‘ज़ौक़’ अपने इन दोनों ‘शागिर्दों’ से उम्र और रुतबे में बहुत ही कम थे। साथ ही ख़ानदानी ग़रीबी ने पढ़ने भी ज़्यादा न दिया था। नवाब साहब जो हर रंग के शे’र कहते थे, इन्हें हर रंग का उस्ताद बना दिया।

ज़ौक़ को दिल्ली से बहुत मोहब्बत थी एक वक्त था जब दक्षिण भारत में भी उर्दू ग़ज़ल उरूज़ पर थी उस वक्त ज़ौक़ ने एक शेर कहा था

इन दिनों गरचे दक्कन में है बड़ी क़द्र ए सुखन
कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

इस कमाल के उस्ताद ने 1854 ई. में सत्रह दिन बीमार रहकर इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मरने से तीन घंटे पहले यह शेर कहा था:

कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहाँ से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे

ज़ौक़ की शायरी की एक झलक

निगाहे-कहर के मारे जब इतने खुश है तो फिर
निगाहे-लुत्फ के मारों का हाल क्या होगा?

आदमियत और शय है, इल्म है कुछ और शय
लाख तोते को पढ़ाया पर वो हैवां ही रहा

ऐ ज़ौक़ तकल्लुफ़ में है तक़लीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता

क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ से
जो ख़्वाब में भी रात को तन्हा नहीं आता

तावाज़ो का तरीक़ा साहिबों पूछों सुराही से
कि जारी फैज़ भी है और झुकी जाती है गर्दन भी

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