आज तक तेरे ख़तों से तेरी ख़ुशबू न गयी

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
4 min readOct 3, 2016

आज ईमेल और सोशल मीडिया के दौर में पैग़ाम तो मिलते हैं लेकिन ख़त की तरह न हाथ की ख़ुशबू आती है, न वो अंदाज़-ऐ-तहरीर, जिसे देख कर लिखने वाले के हाथ की हरकत, उसके कलम पकड़ने के अंदाज़ तक का तसव्वुर हो जाता था। और लोग क्या-क्या तश्बीहात, metaphors, फ़साहत और eloquence से काम लेते थे कि ख़त क्या, वो मुस्तक़िल शायरी हो जाता था -

ख़त ऐसा लिखा है के नगीने से जड़े हैं
वो हाथ के जिसने कोई ज़ेवर नहीं देखा
(बशीर बद्र)

लोग लिखावट के बदले हुए अंदाज़ को देख कर अलफ़ाज़ की रूह तक पहुँच जाते थे। आज तो अगर ये बताना हो के ये बात मज़ाक़ में लिखी गयी है या इस बात का इज़हार करना हो के ये बात सच नहीं है बल्कि sarcasm है तो हमें emoticons और smileys के ज़रिये बताना पड़ता है, वरना पढ़ने वाला ग़लत समझ सकता है। लेकिन उस वक़्त ऐसा रब्त-ए-बाहमी होता था, ऐसी मिज़ाज-शनासी थी कि “Reading between the lines” में हर शख़्स को महारत थी।

गुस्से से भरे ख़त में भी पढ़ लेना मोहब्बत
वो दौर कहाँ अब कि लिखा और, पढ़ा और

और इंतज़ार का लुत्फ़? वो तजस्सुस, वो जिज्ञासा? उसके तो कहने ही क्या! जैसे नज़्म की आख़िरी लाइन, कहानी का आख़िरी सफ़हा, ग़ज़ल के शेर का दूसरा मिसरा। फिर क़ासिद (postman) का किरदार, उसकी अहमियत। यूँ ही नहीं शायरी में क़ासिद, ख़त, जवाब, अंदाज़-ऐ-तहरीर जैसे metaphor भरे पड़े हैं।

अब वक़्त बदल चुका है, अब वो ज़माना तो आने से रहा। फिर भी कभी-कभी पुरानी अटैची से पीले पड़ चुके वो काग़ज़ के टुकड़े निकाल कर देख लेने चाहियें। ये ऐसा है मानो माज़ी के झरोखों पे लटका बोसीदा पर्दा पुरवाई ने हिला दिया हो और सैंकड़ों फ़रामोश-शुदा लहलहाते हुए गुलशनों की झलकियाँ नज़र के सामने आँख मिचोली खेलने लगें। ख़त महज़ पैग़ाम कहाँ होते थे, इंसान का आईना होते थे, और अगर किसी अदीब और शायर के लिखे ख़त हों तो कहना ही क्या ! न सिर्फ़ वो अदब का एक अटूट जुज़ बने बल्कि उस अदीब के मिज़ाज, उसकी सोच, उसकी ज़िन्दगी के अहम् दस्तावेज़ के तौर पर महफ़ूज़ हुए।

ग़ालिब के फ़न का चाहने वाला कौन नहीं है, और जब ऐसा होता है तो जी चाहता है ग़ालिब के बारे में कुछ और पता चले, एक टीस होती है कि काश किसी तरह उस तरहदार शख़्सियत से बात कर पाते। जो शख़्स अपने एक उर्दू दीवान और एक फ़ारसी दीवान से दुनिया को दीवाना कर गया, उसने अपनी वो ज़िन्दगी-जब वो शेर नहीं कह रहा होगा-कैसे बिताई होगी। क्या ख़्यालात होंगे उसके, वो आला दिमाग़ कौन सी चीज़ से चिढ़ता होगा, क्या पसंद करता होगा ?

इस टीस का एक ही इलाज़ है, ग़ालिब के वो चंद ख़ुतूत, जो उन्होंने मुख़्तलिफ़ लोगों को लिखे। बस यही वो पुरवाई है जो ग़ालिब के गुलिस्तां के अलग-अलग पहलूओं और रंगों की एक आध झलक हमें दे पाएगी।

हम ख़ुतूत के इस सिलसिले को शुरू कर रहे हैं ग़ालिब के उन ख़ुतूत से जो उन्होंने अपने दोस्त मुंशी हरगोपाल तफ़्ता को लिखे। (तआरुफ़: जनाब अजमल सिद्दीक़ी)

ग़ालिब का ख़त-1

महाराज,

आपका मेहरबानीनामा पहुँचा। दिल मेरा अगर्चे ख़ुश न हुआ, लेकिन नाख़ुश भी न रहा। बहरहाल, मुझको कि नालायक़ व ज़लीलतरीन ख़लनायक़ हूँ, अपना दुआग़ो समझते रहो। क्या करूँ? अपना शेवा तर्क नहीं किया जाता। वह रविश हिंदुस्तानी फ़ारसी लिखने वालों की मुझको नहीं आती कि बिल्कुल भाटों की तरह बकना शुरू करें। मेरे क़सीदे देखो, तशबीब के शेर बहत पाओगे, और मदह के शेर कमतर। नस्र में भी यही हाल है।

नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ के तज़करे की तक़रीज़ को मुलाहिज़ा करो कि उनकी मदह कितनी है। मिर्जा रहीमुद्दीन बहादुर हया तख़ल्लुस के दीवान के दीबाचा को देखो। वह जो तक़रीज़ ‘दीवान-ए-हाफिज़’ की बमूजिब फ़रमाइश जान जाकोब बहादुर के लिखी है, उसके देखो कि फ़क़त एक बैत में उनका नाम और उनकी मदह आई है और बाक़ी सारी नस्र में कुछ और ही मतालिब हैं।

वल्लाह बिल्लाह, अगर किसी शहज़ादे या अमीरज़ादे के दीवान का दीबाचा लिखता, तो उसकी इतनी मदह न करता जितनी तुम्हारी मदह की है। हमको और हमारी रविश अगर पहचानते, तो इतनी मदह को बहुत जानते। किस्सा मुख़्तसर तुम्हारी ख़ातिर की और एक फि़क़रा तुम्हारे नाम का बदलकर उसके इवज़ एक ‍फ़िक़रा और लिख दिया है।

इससे ज़्यादा भई, मेरी रविश नहीं। ज़ाहिरा तुम ख़ुद फिक्र नहीं करते, और हज़रात के बहकाने में आ जाते हो। वह साहिब तो बेशतर इस नज़्म व नस्र को मोहमल कहेंगे। किस वास्ते कि ‍उनके कान इस आवाज़ से आशना नहीं। जो लोग कि क़तील को अच्छे लिखने वालों में जानेंगे, वह नज़्म व नस्र की ख़ूबी को क्या पहचानेंगे?

हमारे शफ़ीक़ मुंशी नबी बख़्श साहिब को क्या आरिज़ा है कि जिसको तुम लिखते हो, माअ़जनब से भी न गया। एक नुस्ख़ा ‘तिब़-ए-मुहम्मद हुस्सैन ख़ानी’ में लिखा है और वह बहुत बेज़रर और बहुत सूदमंद है, मगर असर उसका देर में ज़ाहिर होता है। वह नुस्खा यह है कि पान सात सेर पानी लेवें और उसमें सेर पीछे तोला-भर चोब चीनी कूटकर मिला दें और उसको जोश करें, इस कद्र कि चहारम पानी जल जावे। फिर उस बाक़ी पानी को छानकर कोरी ठलिया में भर रखें। और जब बासी हो जावे, उसको पिएँ।

जो ग़िज़ा खाया करते हैं, खाया करें। पानी दिन-रात, जब प्यास लगे, यही पिएँ। तबरीद की हाजत पड़े, इसी पानी में पिएँ। रोज़ जोश करवाकर, छनवाकर रख छोड़ें। बरस दिन में इसका फ़ायदा मालूम होगा। मेरा सलाम कहकर यह नुस्ख़ा अर्ज़ कर देना। आगे उनको इख़्तियार है।

-अगस्त सन् 1849 ई.

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