“आपकी याद आती रही रात भर”— मख़दूम मुहिउद्दीन

Praveen Pranav
Urdu Studio
Published in
11 min readDec 25, 2016

हैदराबाद में मख़दूम की प्रसिद्धि का आलम ये था कि डा० ज़ीनत साजिदा जो उस्मानिया विश्वविद्यालय में उर्दू की विभागाध्यक्ष थीं, उन्होंने लिखा कि

“मीर के कलाम से सरखा (चुराना) आसां है, मुमकिन है किसी को पता न चले, लेकिन मख़दूम का आधा शेर भी चोरी कर लीजिए और किसी को सुनाइए तो सुनने वाला बकाया आधा शेर सुना कर कहता है मख़दूम ने क्या खूब कहा है।”

दक्षिण भारत में पैदा हुए उर्दू शायरों में शायद सबसे अधिक प्रसिद्धि मख़दूम मुहिउद्दीन को प्राप्त हुई। 4 फ़रवरी 1908 को तत्कालीन हैदराबाद रियासत के अन्डोल गाँव में (अब जिला मेडक में) जन्मे मख़दूम मुहिउद्दीन एक प्रतिष्ठित क्रांतिकारी और बहुमुखी प्रतिभा के शायर थे। उनका पूरा नाम अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मुहिउद्दीन हुज़री था।

मख़दूम का बचपन बहुत सुखद नहीं रहा। सिर्फ छह साल की उम्र में पिता का निधन हो गया और माँ भी दूसरी शादी कर चली गईं। उनके चाचा ने उन्हें गोद ले लिया और उनकी परवरिश की। छोटे से उम्र में मख़दूम ने मस्जिद में झाडू लगाने का भी काम किया और नमाज़ियों की ख़िदमत की। चाचा ने उनकी अच्छी परवरिश की और उनकी पढाई लिखाई का बेहतर प्रबंध किया।

मख़दूम की आरंभिक शिक्षा गाँव में हुई और उच्च शिक्षा के लिए वे हैदराबाद आ गए जहाँ से उन्होंने स्नातक और स्नातोकत्तर किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे हैदराबाद में ही रहने लगे और ब्रिटिश रुल के खिलाफ “फ्री इंडिया” आन्दोलन से जुड़ गए। 1936 में उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की।

मख़दूम ने 1934 में सिटी कॉलेज में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक के रूप में काम करना शुरू कर दिया लेकिन वो किसी बंधन में बंध कर रहने वाले नहीं थे अतः जल्द ही नौकरी छोड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। वे आंध्र प्रदेश राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। उनके नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के हैदराबाद स्थित दफ़्तर को मख़दूम भवन के नाम से भी जाना जाता है। बाद में वे हैदराबाद रियासत के भारत के साथ विलय के लिए हैदराबाद रियासत के तत्कालीन राजशाही के खिलाफ लामबंद हो गए। हैदराबाद के तत्कालीन शासक, मीर उस्मान अली खान (निजाम) ने स्वतंत्रता के लिए लोगों को उत्साहित करने के कारण उन्हें जान से मारने का आदेश दिया था।

मख़दूम बहुमुखी प्रतिभा के शायर थे। उनकी शायरी में विद्रोह, देशभक्ति, रूमानियत, अकेलापन जैसे रंग बिखरे पड़े हैं। उनकी प्रसिद्ध नज़्म सिपाही में एक सिपाही का दर्द है जो बिना जाने कि वो क्यूँ लड़ने जा रहा है, लड़ाई के मोर्चे पर अग्रसर है। मख़दूम की इसी नज़्म के आधार पर शैलेन्द्र ने फ़िल्म ‘उसने कहा था’ का गीत लिखा था।

जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहाँ जा रहा है

कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्‍चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िन्दगी है कि चिल्‍ला रही है

कितने सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्‍या जवानी का खून हो रहा है
सुर्ख हैं आंचलों के किनारे

गिर रहा है सियाही का डेरा
हो रहा है मेरी जाँ सवेरा
ओ वतन छोड़कर जाने वाले
खुल गया इंक़लाबी फरेरा

विश्वयुद्ध में सिपाही के लड़ने जाने पर उन्होंने सवाल किए लेकिन देश की आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रने की तमन्ना उनके एक प्रसिद्ध गीत में दिखती है।

कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।

क़सम है ख़ून से सींचे हुए रंगी गुलिस्ताँ की
क़सम है ख़ून ए दहकाँ की, क़सम ख़ून ए शहीदाँ की ।
ये मुमकिन है के दुनिया के समुन्दर ख़ुश्क हो जाएँ
ये मुमकिन है के दरिया बहते-बहते थक के सो जाएँ ।
जलाना छोड़ दें दोज़ख़ के अंगारे ये मुमकिन है
रवानी तर्क कर दे बर्क़ के धारे ये मुमकिन है ।
ज़मीने पाक अब नापाकियों को ढो नहीं सकती
वतन की शम्मे आज़ादी कभी गुल हो नहीं सकती ।

कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।

वो हिन्दी नौजवाँ याने अलम्बरदारे आज़ादी
वतन का पासबाँ वो तेग-ए जौहरदारे आज़ादी ।
वो पाक़ीज़ा शरारा बिजलियों ने जिसको धोया है
वो अंगारा के जिसमें ज़ीस्त ने ख़ुद को समोया है ।
वो शम्म-ए ज़िन्दगानी आँधियों ने जिसको पाला है
एक ऐसी नाव तूफ़ानों ने ख़ुद जिसको सम्भाला है ।
वो ठोकर जिससे गीती लरज़ा बर‍अन्दाम रहती है ।

कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।

वो धारा जिसके सीने पर अमल की नाव बहती है ।
छुपी ख़ामोश आहें शोर ए महशर बनके निकली हैं ।
दबी चिंगारियाँ खुर्शीद ए ख़ावर बनके निकली हैं ।
बदल दी नौजवाने हिन्द ने तक़दीर ज़िन्दाँ की
मुजाहिद की नज़र से कट गई ज़ंजीर ज़िन्दाँ की ।

कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।

हैदराबाद के भारत में विलय के बाद वे 5 वर्षों तक आंध्र प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी रहे। इस दौरान उन्होंने रूस और चीन सहित कई कम्युनिस्ट देशों की यात्रा भी की। उन्होंने रूस में युरी गागरिन से भी मुलाक़ात की जो अंतरिक्ष में जाने वाले पहने इंसान थे और इस मुलाक़ात के बाद मख़दूम ने गागरिन के लिए एक कविता लिखी थी।

मुबारक तुझे ओ ज़मीं के मुसाफ़िर
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना
हवाओं से आगे, ख़लाओं से आगे
मह व कहकशाँ की फ़िज़ाओं से आगे
मुबारक सितारों की चिलमन हटाना
सरे जुल्फ़े नाहीद को छू के आना
दिले इब्ने आदम की धड़कन सुनाना
मुबारक तुझे ओ ज़मीं के मुसाफ़िर
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना ।

आजादी के बाद और राज्यों के निर्धारण के बाद मख़दूम साहित्यिक गतिविधियों में लगे रहे। उनकी रचना बिसात-ए-रस्क के लिए उन्हें 1969 में उर्दू साहित्य एकेडमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, इसी वर्ष उनका देहांत भी हो गया। उनकी रचनाओं के अलावा टैगोर पर उनके लिखे लेख और काव्य नाटक “होश के नाखून” प्रमुख रहे। बिसात-ए-रस्क, मख़दूम के दो संग्रह सुर्ख सवेरा (1944) और गुल-ए-तर (1961) का संकलन है। मख़दूम को शायर-ए-इन्किलाब के खिताब से भी नवाज़ा गया। उनके गज़ल और गीत कई हिन्दी फिल्मों में लिए गए। एक चमेली के मंडवे तले, आप की याद आती रही रात भर, फिर छिड़ी रात बात फूलों की कुछ प्रमुख गीत हैं।

ऐसा नहीं है कि मख़दूम ने सिर्फ क्रांति पर ही लिखा, उन्होंने बहुत सारे रूमानी नज़्म, गीत और गज़ल भी लिखे। लेकिन रूमानी रचनाओं में भी, बेहतर कल के ख़्वाब और उम्मीदों का असर दिखता रहा। या यूँ कहें कि कुछ क्रांति की रचनाएं रूमानियत के साथ लिखी गईं।

रक़्स

वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की क्मान जाम ले के आ गया

वो चाँदनी की नर्म-नर्म आँच में तपी हुई
समन्दरों के झाग से बनी हुई जवानियाँ
हरी-हरी रविश पे हमक़दम भी हमकलाम भी

बदन महक-महक के चल
कमर लचक-लचक के चल
क़दम बहक-बहक के चल

वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की कमान जाम ले के आ गया

ख़्वाहिशें

ख़्वाहिशें
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं
जाग उठी दिल की इन्दर सभा
दिल की नीलम परी, जाग उठी
दिल की पुखराज
लेती है अंगड़ाईयाँ जाम में
जाम में तेरे माथे का साया गिरा
घुल गया
चाँदनी घुल गई
तेरे होंठों की लाली
तेरी नरमियाँ घुल गईं
रात की, अनकही, अनसुनी दास्ताँ
घुल गई जाम में
ख़्वाहिशें
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं ।

मख़दूम हैदराबाद के हरदिल अज़ीज़ शायर थे। वे बड़े ही मिलनसार और ख़ुशमिज़ाज आदमी थे। खुद अपना मज़ाक उड़ाने में उनका कोई सानी नहीं था।

एक बार मख़दूम अलसुबह ओरियेंट होटल पहुँचे और बेयरे से पूछा, “निहारी है?”
बैरा बोला, “नहीं है।”
मख़दूम ने पूछा, “आमलेट है?”
बैरा बोला, “नहीं”
मख़दूम ने फिर पूछा, “खाने के लिए कुछ है?”
बैरे ने जवाब दिया, “इस वक़्त तो कुछ नहीं है।”
इस पर मख़दूम बोले, “ये होटल है या हमारा घर कि यहाँ कुछ भी नहीं है!”

उनकी आदत थी कि कोई नई गज़ल कहने के बाद फौरन किसी न किसी को सुना डालते थे। इस आदत को लेकर एक लतीफा वे खुद ही सुनाया करते थे।

एक दिन उन्होंने एक ग़ज़ल लिखी और फौरन ओरियेंट होटल चले आए कि कोई माई का लाल मिल जाए तो उसे ग़ज़ल सुनाएं। यहाँ कोई न मिला तो ‘सबा’(अख़बार) के दफ़्तर चले गए। वहाँ भी कोई न मिला। थक-हार कर चाइनीज बार में चले गए। बार के बैरे क़ासिम को बुला कर कहा, “दो पैग व्हिस्की ले आओ।” क़ासिम व्हिस्की ले आया तो उससे बोले, “बैठो और व्हिस्की पियो।” क़ासिम शरमाता रहा मगर वो अड़े रहे। आखिर उसने खड़े-खड़े व्हिस्की पी ली। फिर बोले, “दो पैग व्हिस्की और ले आओ।” दूसरे दौर में भी उन्होंने क़ासिम को व्हिस्की पिलाई। फिर तीसरा दौर चला। इसके बाद मख़दूम ने क़ासिम से कहा, “अच्छा क़ासिम! अब मेरे सामने बैठो, मैं तुम्हें अपनी ताज़ा गज़ल के कुछ शे’र सुनाना चाहता हूँ।”
यह सुनते ही क़ासिम ने कहा, “साहिब, आप बहुत पी चुके हैं। आपकी हालत ग़ैर हो रही है। चलिये, मैं आपको घर छोड़ आऊँ।” मख़दूम द्वारा अपनी होशमंदी के हजार सुबूत पेश करने के बाद भी क़ासिम ने उस रात उनकी गज़ल नहीं सुनी।

मख़दूम की एक नज़्म ‘नया साल’ जिसमें उनका ये मसखरापन झलक मारता है:

करोड़ों बरस की पुरानी
कुहनसाल दुनिया
ये दुनिया भी क्या मस्ख़री है ।
नए साल की शाल ओढ़े
बसद तंज़, हम सब से यह कह रही है
के मैं तो “नई” हूँ
हँसी आ रही है

मख़दूम अक्सर अपने परिचितों को जानबूझकर छेड़ते भी रहते थे। ऐसा ही एक किस्सा है:

एक बार मख़दूम अपने मित्र शायर सुलेमान अरीब के घर पर मशहूर पेन्टर सईद बिन मुहम्मद के साथ बैठे थे। बातों के क्रम में वे बोले, “शाइरी मुसव्विरी से कहीं ज़्यादा ताकतवर मीडियम है।” सईद बिन मुहम्मद ने जवाब दिया, “मुसव्विरी और शाइरी का क्या तकाबुल! शाइरी में तुम जो चीज बयान नहीं कर सकते, हम रंगों और फार्म में बयान कर देते हैं। तुम कहो तो सारी उर्दू शाइरी को पेन्ट कर के रख दूँ।”
मख़दूम बोले, “सारी उर्दू शायरी तो बहुत बड़ी बात है; तुम इस मामूली मिस्रे को ही पेन्ट कर दो”
“पंखुड़ी इक गुलाब की सी है।”
सईद बिन मुहम्मद ने कहा, “ इसमें कौन सी बड़ी बात है; मैं कैनवास पर एक गुलाब की पंखुड़ी बना दूँगा।”
वे बोले, “पंखुड़ी गुलाब की” तो पेन्ट हो गई, मगर ‘सी’ को कैसे पेन्ट करोगे?”
सईद बिन मुहम्मद बोले, ‘सी’ भी भला कोई पेन्ट करने की चीज है?”
मख़दूम बोले, “मिस्रे की जान तो ‘सी’ ही है। सईद! आज मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा जब तक तुम ‘सी’ को पेन्ट नहीं करोगे।”
यह सुनते ही सईद बिन मुहम्मद भाग खड़े हुए।

आजादी के लिए बगावत करने के लिए मख़दूम को जेल भी जाना पड़ा लेकिन वहाँ भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। जेल में कागज़ कलम नहीं मिलने पर उन्होंने जेल की दीवारों पर कोयले तक से नज़्म लिखे। क्रांति के रास्ते में अमूनन सफलताएं कम और दुश्वारियाँ ज्यादा हिस्से में आती हैं। मख़दूम को भी कई बार गुमनाम होना पड़ा। उनके कई नज्मों में इस सूनापन का असर साफ़ झलकता है।

शहर

ये शहर अपना
अजब शहर है के
रातों में
सड़क पे चलिए तो
सरगोशियाँ सी करता है

वो लाके ज़ख्म दिखाता है
राजे दिल की तरह
दरीचे बंद
गली चुप
निढाल दीवारें
कोढ़ा मोहरें-ब-लब
घरों में मैय्यतें ठहरी हुई हैं बरसों से
किराए पर

सन्नाटा

कोई धड़कन
न कोई चाप
न संचल
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये रहगुज़र
कोई रुख़सार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे

वक़्त- बेदर्द मसीहा

दर्द की रात है
चुपचाप गुज़र जाने दो
दर्द को मरहम न बनाओ
दिल को आवाज़ न दो
नूर-ए-सहर को न जगाओ
ज़ख़्म सोते हैं तो सो रहने दो
ज़ख़्म के माथे से अम्य्तभरी उँगली न हटाओ
दिल को आराम, फफोलों को सुकूँ मिलता है
वक़्त बेदर्द मसीहा है

सैयद मोहम्मद मेहदी, मख़दूम साहब के दोस्त थे। उन्हें याद करते हुए मेहदी साहब ने कहा था कि मख़दूम बहुत ही सुरीले थे। वे अपने हर नज़्म की धुन भी बनाते थे और बड़े सुर में गुनगुनाते थे।

एक दिलचस्प वाकया याद करते हुए उन्होंने बताया कि उन दिनों हर स्कूल में पहले निजाम की शान में एक तराना पढ़ा जाता था। मख़दूम ने इस तराने के खिलाफ़ एक शेर लिख दिया जो बहुत प्रसिद्ध हो गया। लोगों ने निजाम को सूचित किया कि मख़दूम ने एक शेर लिखी है जिसकी वजह से अब जब भी ये तराना गाया जाता है तो लोग हँसने लगते हैं और इससे आपकी शान में गुस्ताखी हो रही है। निजाम ने उसके बाद तराना गाने का नियम रद्द कर दिया।

एक और दिलचस्प वाकया उनके चुनाव लड़ने से जुड़ा है। मख़दूम असेम्बली के चुनाव में खड़े थे और उन्हें लोगों का अपार समर्थन था। उनका ही लिखा हुआ एक शेर है

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो

उस चुनाव में लोगों ने इस शेर को एक दिलचस्प तरीके से बदल दिया और शहर की हर दीवार पर चस्पा कर दिया।

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो जनाने को अपने साथ ले के चलो

मतलब था कि चुनाव के दिन अपनी औरतों को भी अपने साथ ले जाएँ और मख़दूम के लिए वोट डालें।

अमूनन कम ही होता है की कोई शायर दूसरे शायर की तारीफ़ करे लेकिन मख़दूम इसके अपवाद थे। एक बार उन्होंने मेहदी साहब को सुबह-सुबह फोन लगाया और पूछा कि आज के अखबार में मेरी गज़ल पढ़ी? मेहदी साहब ने नहीं पढ़ी थी तो इन दोनों ने शाम में मिलने का प्रोग्राम बनाया। किसी होटल में शाम में मिले और जब अखबार पढ़ रहे थे तो उसी अखबार में फैज़ अहमद फैज़ की एक गज़ल पर उनकी नज़र गई। उन्होंने तुरन्त उस गज़ल की धुन बनाई और उसे गाते रहे। जब मेहदी साहब ने उन्हें बोला कि तुमने गज़ल सुनाने को बुलाया था तो उन्होंने बात बदलते हुए बोला यही तो गज़ल है इससे बढ़िया गज़ल क्या होगी। उस शाम कई लोगों के आग्रह करने के बाद भी मख़दूम ने अपनी कोई गज़ल नहीं पढ़ी और फैज़ की उस गज़ल को गुनगुनाते रहे। फैज़ की वो गज़ल थी:

दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है…!!!

इसी तरह फैज़ ने भी मख़दूम को एक अव्वल दर्जे का शायर माना और उनका एहतराम किया। मेहदी साहब ने जब इस वाकये तो फैज़ के साथ साझा किया तो उनकी आँखें भर आई थी।

दूरदर्शन ने नामी साहित्यकारों की याद में एक कार्यक्रम “कहकशां” का निर्माण किया जिसमे मख़दूम पर 8 भागों की श्रृंखला प्रसारित की गई। इरफ़ान ने इस सीरियल में मख्दूम का किरदार निभाया था।

25 अगस्त, 1969 को जब मख़दूम की मृत्यु हुई तो हजारों लोग दहाड़ें मार-मार कर रो रहे थे जैसे कि उनके परिवार से ही किसी की मृत्यु हो गई हो। उनके व्यक्तित्व और जीवन को उन्हीं के शब्दों में बयान करें तो:

एक शख़्स था ज़माना था के दीवाना बना
इक अफ़साना था अफ़साने से अफ़साना बना।

इक परी चेहरा के जिस चेहरे से आईना बना
दिल के आईना दर आईना परीखाना बना।
क़ीमि-ए-शब में निकल आता है गाहे-गाहे
एक आहू कभी अपना कभी बेगाना बना।
है चरागाँ ही चरागाँ सरे आरिज़ सरेज़ाम
रंग सद जलवा जाना न सनमखाना बना।
एक झोंका तेरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तेरी दिलदारी का क्या-क्या न बना।

मख़दूम के सरमाये में एक तरफ तो उनके क्रांतिकारी सरोकारों से जुड़ी शायरी है तो दूसरी ओर एक बड़ा भाग इससे अलग खालिस रूमानी शायरी का भी है। इस संदर्भ में मशहूर शायर ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने बिल्कुल ठीक कहा था कि,

“मख़दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूँदें भी, वे क्रांति के आवाहक थे और पायल की झंकार भी। वे ज्ञान थे, वे कर्म थे, वे प्रज्ञा थे, वे क्रांतिकारी छापामार की बन्दूक थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।”

अपने किताब की भूमिका लिखते हुए मख़दूम ने 24 जुलाई 1961 को लिखा,

“ज़मां व मकां का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़मां होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है, समाज के बदलने के साथ साथ इन्सानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं।”

इसी भूमिका के अंत में उन्होंने लिखा,

“ज़िन्दगी ‘हर लहज़ा नया तूर, नई बर्क-ए-तज्जल्ली’ है और मुझे यूँ महसूस होता है कि मैंने कुछ लिखा ही नहीं।”

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