“ऐ मेरे वतन के लोगो’ — कवि प्रदीप (रामचंद्र बरायनजी द्विवेदी)

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
4 min readDec 11, 2016

27 जनवरी 1963 की वो तारीख़ जब दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में करीब 50 हजार हिंदुस्तानियों के हुजूम के सामने पहली बार ये गीत गूंजा था, उस जलसे में कवि प्रदीप नहीं थे। लेकिन उनके लिखे गीत के हर एक लफ़्ज़ ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के दिल पर वो असर किया के उनकी आँखों से आँसू निकल आये। दरअसल 1962 की जंग में मिली हार से नेहरू ज़ाती तौर पर ख़ुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे। संसद में उन्होंने कहा था

‘हम जदीद ज़माने की सच्चाईयों से दूर हो गए थे, हम एक मन घड़ंत माहौल, ख़्याली जन्नत में जी रहे थे, जिसे हमने ख़ुद ही तैयार किया था।’

20 अक्टूबर 1962 को मशरिक़ी हिंदुस्तान की सरहद पर सुबह करीबन चार बजे का मंजर बेहद ख़ौफ़नाक था। चीनियों ने हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे की आड़ में हिंदुस्तानी ज़मीन पर अपने नापाक कदम रख दिए थे। हालाँकि हिंदुस्तानी फ़ौज ने उनका जांबाज़ी से मुक़ाबला किया लेकिन हम इस जंग के लिए तैयार नहीं थे, आख़िरकार शिक़स्त के साथ-साथ भारी नुक्सान भी उठाना पड़ा। इस शिकस्त ने हमारे गुरूर को गहरा सदमा पहुँचाया। प्रदीप के इस नग़्मे ने हर इक हिंदुस्तानी के टूटे हुए दिल को झकझोड़ा और वापिस मुस्तैदी और हिम्मत के साथ खड़ा होने में मद्दद की।

नेहरू हिंदी-चीनी भाई-भाई की ग़लत वहमी से बाहर निकल कर सच का सामना करना चाहते थे। जिस दिन लता मंगेशकर ने नेशनल स्टेडियम में ‘ऐ मेरे वतन के’ लोगों गीत गया, उसके ठीक एक दिन पहले 14वां गणतंत्र दिवस मनाया गया था, ये इकलौती गणतंत्र दिवस परेड थी जिसकी नुमायंदगी मुल्क का प्रधानमंत्री ख़ुद कर रहा था। इसी माहौल में कवि प्रदीप के गीत ने करोड़ों हिंदुस्तानियों को आपसदारी और इत्तेहाद का सबक दिया । नेहरू की दिली ख़्वाहिश थी के वो उस कवि से मिले जिसके गीत ने एक झटके में हिंदुस्तान को उसकी खोई ताकत-तारीख़ और क्षमताओं की याद दिला दी, जल्द ही ये मौक़ा भी आया। 21 मार्च 1963 को पंडित नेहरू मुंबई आए और मुंबई के रॉबर्ट मॉय हाई स्कूल में एक जलसे के दौरान कवि प्रदीप की उनसे मुलाक़ात हुई। नेहरू के कहने पर प्रदीप ने अपनी आवाज़ में ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गीत गाकर सुनाया, उन्होंने नेहरू को इस गीत समेत अपने कई गीतों की अपनी हाथ से लिखी डायरी भी तोहफ़े के तौर पर दी। उन्होंने नेहरू को ये भी बताया कि इस गीत को लिखने की प्रेरणा उन्हें कैसे मिली।

ये इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि इस गीत का एक-एक हर्फ़ शिमाल (उत्तर) की जानिब चूशलू मोर्चे के क़रीब 17 हज़ार फुट की ऊंचाई पर लड़ी गई रेजांगला दर्रे की जंग की याद दिलाती है। इसी जंग में परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह शहीद हो गए थे। 18 नवंबर 1962 की को बर्फ़ीले तूफान की आड़ में चीनियों ने रेजांगला दर्रे पर मौजूद हिंदुस्तानी चौकियों को घेर लिया था। कुमाऊं रेजीमेंट की 123 जांबाजों की छोटी सी कंपनी तीन पलाटून में बंट कर दर्रे की रक्षा कर रही थी। जांबाजों ने चीनियों के लगातार दो हमलों को सिर्फ़ बहादुरी की बदौलत पीछे धकेल दिया। तीसरा और सबसे बड़ा हमला पीछे से हुआ। आख़िरकार एक प्लाटून अपने आख़िरी जवान तक लड़ते हुए ख़त्म हो गई, दूसरी प्लाटून आख़िरी गोली तक लड़ती रही, कुछ नहीं मिला तो संगीनों और पत्थरों तक से जवानों ने चीनियों का मुक़ाबला किया।आख़िरी हमले में ही मेजर शैतान सिंह बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे। उनके जवान उन्हें एक चट्टान के पीछे छोड़ गए थे, जहां अपनी बंदूक मुट्ठी में भींचे हुए उन्होंने आख़िरी सांस ली। जंग के आख़िर में महज़ 14 जांबाज़ बचे, 9 बुरी तरह से ज़ख़्मी थे। चीनियों के फ़ौत और ज़ख़्मी सैनिकों की तादाद कई सौ में थी। कवि प्रदीप ने रेजांगला की इसी लड़ाई को गीत बना कर हमेशा के लिए अमर कर दिया।

आभार (बुनियादी तहक़ीक़ के लिए): IBN News 18

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