बोलने में कम से कम बोलूँ; कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ: विनोद कुमार शुक्ल
सरल और सहज सी नज़र आने वाली ये कविता विनोद कुमार शुक्ल की है । वही विनोद कुमार शुक्ल जिन्हें कुछ आलोचक बंद दरवाज़े का कवि कहते हैं । कहते हैं के उनकी आवाज़ में गड़गड़ाहट का स्वर नहीं हैं, चुप्पा कवि हैं। ये सच है शुक्ल की कवितायेँ शोर नहीं करती क्योंकि शोर में असल छुप जाता है। शुक्ल की कविता का धरातल बड़ा ही समतल और ठोस है, न ही कोई शब्दों का अपरिमित जादू और न अलंकारिक चमत्कार । कविता के मिज़ाज के मुताबिक़, गर्मियों में गर्म और सर्दियों में ठंडा । सीधे शब्दों में कहें तो यथार्थ के करीब बिना किसी अतिश्योक्ति के।
पहाड़ को बुलाने
‘आओ पहाड़’ मैंने नहीं कहा
कहा ‘पहाड़, मैं आ रहा हूँ।
पहाड़ मुझे देखे
इसलिए उसके सामने खड़ा
उसे देख रहा हूँ।
पहाड़ को घर लाने
पहाड़ पर एक घर बनाऊंगा
रहने के लिए एक गुफ़ा ढूँढूंगा
या पितामह के आशीर्वाद की तरह
चट्टान की छाया
कहूंगा यह हमारा पैतृक घर है।
शुक्ल का जीवन बेहद फ़ुर्सत से भरा जान पड़ता है, जैसे दुनिया की हर चीज़ को अपने जादुई अंदाज़ से रचना चाहते हों। कहीं कुछ छूट न जाये। मगर रंग चटकीले नहीं हैं, हल्के, मगर गहरे हैं। स्वभाव से बेहद शांत और संकोची, बातो में ठहराव और झिझक बहुत साफ़ दिखाई पड़ती है | ख़ुद को तड़क-भड़क से दूर रखना और ख़ुद में खोये रहना ही उनकी रचनाओ को अलग बनाता है | वह इस कदर संकोची हैं कि अपने सम्मान समारोह में भी सबसे पीछे रहना ही पसंद करते है | एक हालिया किस्सा ग़ौरतलब है:
छत्तीसगढ़ में हिंदी ग्रंथ अकादमी ने एक पुस्तक परिचर्चा में उन्हें आमंत्रित किया, जमावड़े में प्रतिष्ठित साहित्यकार और पत्रकार मौजूद थे | विनोद जी सभा में चुपचाप आये और सबसे पीछे एक कुर्सी पर बैठ गए | जब संचालक महोदय ने उन्हें देखा तो मंच पर आने का आग्रह किया, शुक्ल बड़ी हिचकिचाहट के बाद सबसे आगे की पंक्ति में खाली कुर्सी पर ये कह कर बैठ गए कि यही स्थान उनके लिए ठीक है और मंच पर जाने से इनकार कर दिया| अत्यंत मनुहार के बाद मंच पर जाने के लिए राज़ी हुए और वहां भी उनकी झिझक उनके मुख पर साफ़ दिखाई पड़ रही थी |
निम्न कविता उनके स्वभाव की परतें खोलती हुई -
बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप ।
उनकी कविता आसानी से ज़हन में नहीं उतरती, बल्कि कविता के द्वार पर बार बार दस्तक देनी पड़ती है और रुक-रुक कर, एकान्त में घूँट-घूँट पीना पड़ता है। ये हमेशा उन्माद की अभिव्यक्ति या सतह पर उमड़ता अंतर्मन का द्वन्द ही नहीं, ये सागर के भीतर की वह निःशब्दता भी है वह ठहराव भी है वह रहस्य भी है जो शांत, स्थिर, मौन चित्त में ही उतरता है। शुक्ल कविता के माध्यम से अपने ही प्रतिबिंबों के मध्य रहकर ख़ुद का विस्तार करते हैं -
अपने अकेले होने को
एक-एक अकेले के बीच रखने
अपने को हम लोग कहता हूँ।
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूँ
कि हम लोग आता हूँ
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में- हमन आवत हन।
तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं।