मेरे हिस्से में माँ आयी

Javed Alam
Urdu Studio
Published in
2 min readNov 26, 2016
Image: Manas Mishra

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आयी
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी

ग़ज़ल, जिसके लग़वी माएने हैं मेहबूब से बातें करना और बातें भी लब, रुखसार, गेसू, तिल, शब्, वस्ल, और जिस्म की बनावट वगैरह। ग़ज़ल में मेहबूब का होना शर्त है यानी जिससे या जिसके बारे में आप शायरी में बात करें। शायरों ने ग़ज़ल के दीवान लिख डाले। बीच बीच में शायरों ने लीक से हटकर शायरी की और ग़ज़ल को नए ज़ाविए भी दिए, हर दौर में ग़ज़ल पर नए नए प्रयोग होते रहे हैं।

लेकिन जदीद शायरी के एक शायर ने ग़ज़ल को नया ज़ाविया दिया। उनका मानना था के ग़ज़ल में जब आम शक्ल ओ सूरत की औरत मेहबूबा हो सकती हैं। तो माँ को मेहबूब क्यों नहीं बना सकते। जिस तरह तुलसीदास के मेहबूब राम हो सकते हैं तो मेरी ग़ज़ल में मेरी मेहबूबा मेरी माँ क्यों नहीं हो सकती? क्या प्यार सिर्फ मेहबूबा से होता है? नहीं, प्यार हर उस रिश्ते में हैं जहाँ अपनापन है, जहाँ ममता है, जहाँ फ़िक्र है, जहाँ परवाह है। हम बात कर रहे हैं मुनव्वर राना की जिनका ये तर्जुबा कामयाब हुआ और उन्होंने प्रेमिका के साथ बाक़ी इंसानी रिश्तों को भी टटोला। माँ पर की गयी उनकी शायरी बहुत मक़बूल है साथ साथ उन्होंने बेटी और बहन और आम इंसान की रोज़ मर्रा की स्ट्रगल पर भी शेर कहे हैं।

देखिये इन्हीं ज़ावियों पर मुनव्वर राना के कुछ अशआर,

चलती-फिरती हुई आँखों में अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है।

तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी।

‘मुनव्वर’ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती।

ग़ज़ल वो सिन्फ़ ए नाज़ुक है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है, मैं बेटी बनाता हूँ।

सो जाते है फुटपाथ पे अख़बार बिछाकर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं।

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा
अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बांधेगा।

भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है।

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