गुफ़्तगू रेख़्ते में हमसे न कर; ये हमारी ज़बान है प्यारे — मीर तक़ी मीर

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
5 min readSep 20, 2017

मीर उर्दू शायरी के अज़ीमतरीन शायर हैं और इफ़्तेताही उर्दू शायरी का सेहरा भी मीर तक़ी मीर को ही जाता है। मीर ने उर्दू को नई ज़िन्दगी दी, ऐसी ज़िन्दगी जो महलों की चार दीवारी से परे गली-कूचों में रच बस गई। इनकी शायरी की एक ख़ुसूसियत ये भी है कि इन्होने शायरी में उस ज़माने के तअस्सुरात इस ख़ूबी से जड़े हैं कि आँखों के आगे तस्वीरें ज़िंदा हो जाती हैं। इस बात की हिमायत उर्दू शायरी के सुतून वक़्त-ब-वक़्त करते रहे हैं।

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था

- ग़ालिब

न हुआ, पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब

ज़ौक़ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

- ज़ौक़:

मीर की शायरी बुनियादी तौर पर मोहब्बत और (शफ़्क़त) के दरम्यान रहती है, जिसमें वस्ल के लुत्फ़ और दीदार के सुख के साथ हिज़्र की अज़ीयतें और गमे-रोज़गार भी शामिल हैं।। इस की एक बड़ी वजह उनकी ज़ाती ज़िन्दगी में मुफ़्लिसी, तंगदस्ती, ज़ेरबारी और दूसरे मुश्किल हालात थे जिन से मीर सुबह-शाम दो चार हो रहे थे।

शाम से ही बुझा सा रहता है

दिल हुआ है चराग़ मुफ़लिस का

मीर के पास ज़िन्दगी के हर इक पहलु को पहले बारीक़ी से देखने और समझने की, फिर उसे शायरी के हवाले से फ़रोग़ अता करने और नुमायाँ करने की ग़ैर-मामूली सलाहियत है। मीर की ज़िन्दगी कितनी ही जद्दो-जहद से क्यों न गुज़री हो, उन्होंने दिल पर कितने ही ज़ख़्म क्यों न खाये हों, फिर भी इनकी शायरी में जीत मौत की नहीं, ज़िन्दगी की ही होती है। मीर मायूसी और न-उम्मीदी की तारीक गहराईयों में भी उम्मीद की रोशनी ढूंढ लेते हैं। शायद यही वजह है कि मीर की शायरी में श्रृंगार का हर रस शामिल है। इनकी शायरी में एक रंग सूफ़ीयाना भी है और ये रंग उन्हें विरसे में मिला है। मीर के वालिद एक मशहूर सूफ़ी संत थे, लेकिन मीर ने उन्हें 10–12 बरस की छोटी उम्र में ही खो दिया। मीर अपनी सवानेह-उमरी में कहते हैं कि — ‘मेरे वालिद दिन रात तफ़क्कुर में रहते थे और जब कभी होश में आते तो कहते थे’ -

“मेरे बेटे ! ये मोहब्बत से ही दुनिया क़ायम है, मोहब्बत ही को अपनी हयात समझ। मोहब्बत नहीं तो ये आलम नहीं। मोहब्बत बनाती भी है, जलाती भी है। इस आलम में जो है वो इश्क़ ही का ज़हूर है ! आग इश्क़ की जलन है। आब इश्क़ की रफ़्तार है। मिटटी इश्क़ का ठहराव है और हवा इश्क़ की बेकली। मौत इश्क़ की मस्ती है और ज़िन्दगी होश।”

मीर इसी तअल्लुक़ से लिखते हैं -

मोहब्बत से ज़ुल्मत ने काढ़ा है नूर

न होती मोहब्बत, न होता ज़हूर

मोहब्बत लगाती है पानी में आग

मोहब्बत से है तेग़ो गर्दन में लाग

वालिद के इंतेक़ाल के बाद इनकी परवरिश एक सूफ़ी संत अमानुल्ला, जिन्हें मीर ‘चचा’ पुकारते थे, के हाथों हुई जो इनके वालिद के क़रीबी दोस्त थे। बचपन सूफ़ी ख़्यालात के दरम्यान ज़ब्त में गुज़रा और यही वजह रही कि मीर की शख़्सियत निहायत हस्सास और आसूदा तबियत हो गई। थोड़े में गुज़ारा करना और ऊपर वाले की इबादत में दिन गुज़ारना ही इनका शेवा रहा। इब्तेदाई ज़िन्दगी ने मीर को इस क़द्र तराशा कि मीर का तमाम कलाम साफ़-सुथरा, रोशन-ख़्याल और बामानी रहा। मीर धीरे से और नर्म रेशम लहज़े मेंं वो राज़ की बात बड़ी आसानी से बोल जाते हैं, जो अच्छे-अच्छे हुनरमंद तवील तहरीरों में नहीं बोल पाते -

दिल वो नगर नहीं की फिर आबाद हो सके

पछताओगे, सुनो हो, ये बस्ती उजाड़ के

*-*-*

मौत एक मांदगी का वक़्फ़ा है

यानी, आगे चलेंगे दम लेकर

काम और रोज़गार की तलाश में मीर आगरा से दिल्ली आ गए और जल्द ही 30 रुपये माहवार की नौकरी हासिल कर ली। लेकिन मीर की ज़िन्दगी को आसान न होना था, इस बीच नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया। इन्हीं दिनों को मीर इस तरह याद करते हैं -

“एक दिन टहलता हुआ शहर के वीरानों में जा निकला। हर क़दम पर रोता ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा हैरत बढ़ती गई। मकानों को पहचान न पाया। न आबादी का पता था न इमारतों के निशान और न वहाँ रहने वालों की कोई ख़बर! …… कभी कोई ऐसा चेहरा नज़र न आया जिस से दो बातें कर लेता। इस उजाड़ गली से निकल कर वीरान रस्ते पर आ खड़ा हुआ और हैरत से तबाही के निशानात देखता रहा। बहुत दुःख उठाया और तय किया कि अब इधर न आऊँगा और जब तक रहूंगा इस शहर का मुँह न देखूँगा। “

अब ख़राबा हुआ जहानाबाद

वरना हर इक क़दम पे याँ घर था

दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें

था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताजो तख़्त का

नाकाम रहने का तो तुम्हें ग़म है आज ‘मीर’

बहुतों के काम हो गए हैं कल तमाम याँ

‘मीर’ इस ख़राबे में क्या आबाद होवे कोई

दीवारो दर गिरे हैं, वीरां पड़े हैं सब घर

मीर के लिए अब दिल्ली में गुज़र-बसर करना मुश्किल हो गया, लिहाज़ा मीर वापिस आगरा आ गए। जब दिल्ली के हालात सुधरे तो एक और बार मीर दिल्ली आ गए। दिल्ली का ये क़याम भी मीर के लिए नफ़्सियाती उलझनों और रंज-ओ-ग़म की सौगात ले आया। मीर जिन साहब के घर में पनाह लिए थे, उन्हीं की दुख्तर से इश्क़ कर बैठे, वो भी नाकाम इश्क़। इस इश्क़ ने मीर को नफ़्सियाती तौर पर बहुत नुक़सान पहुँचाया और मीर को इस से बाहर निकलने में एक ज़माना लग गया।

मीर को शायरी करने के लिए सय्यद अली ख़ान ने राज़ी किया और हौसला अफ़ज़ाई भी की। मीर ने थोड़े ही वक़्त में दिल्ली के मुशायरों में अपनी जगह बना ली। लेकिन उन की आज़ुर्दाह हालत और टूटे दिल ने उन्हें आख़िरकार वापिस आगरा पहुँचा दिया। फिर एक रोज़ अवध के नवाब का पैग़ाम आया और लख़नऊ आने की दावत दी। नवाब के इसरार और इज़्ज़त-अफ़ज़ाई के चलते मीर लख़नऊ चले गए। शायद वो लख़नऊ ही था जिसने मीर को कहीं भी टिकने न दिया, क्योंकि जिस मसर्रत, जिस सुकूनं की तलाश में मीर मारे-मारे घूम रहे थे वो यहाँ हासिल हुई। मीर ने यहाँ ख़ूब नाम और इज़्ज़त कमाई और एक अच्छी उम्र जीने के बाद 1870 में 87 बरस की उम्र में चल बसे। मौत से बहुत पहले, जब मीर की उम्र 60 बरस की थी तो लिखते हैं -

“इस छोटी सी मुद्दत में ख़ून के इस क़तरे ने जिसे दिल कहते हैं, रंग रंग के दुःख झेले हैं ख़ूना-ख़ून हो गया। तबीयत उचाट हो गई। सबसे मिलना जुलना बंद कर दिया। अब बुढ़ापा आ गया है, उम्र साठ की हो गयी है। ज़्यादातर बीमार रहता हूँ। कुछ दिनों आँखों की तक़लीफ़ भी सही, देखने की ताक़त न रही, और ऐनक की हाजत हुई। अपने दोनों हाथ मले और देखने-दिखाने की हवस छोड़ दी। ……… गरज़ ताक़त घट जाने, होश गुम हो जाने, कमज़ोरी बढ़ जाने, दिल टूट जाने और तबियत उचट जाने से यही पता चलता है कि अब बहुत दिनों तक नहीं जियूँगा। ज़माना भी अब जीने लायक़ नहीं रहा है। अब दामन खींच लेना ही अच्छा है। अगर मर जाऊँ तो यही आरज़ू है। और अगर न मरूँ तो सब ख़ुदा के हाथ है। “

जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरेे हरगिज़

ता हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा

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