जो गुज़ारी न जा सकी हम से; हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है — जॉन एलिया

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
3 min readDec 14, 2016

वो रोशनियों से डरता था,
दस साल नींद नहीं आई,
दस साल एक लाईन नहीं लिखी,
नशे में डूबा रहा,
यक़ीन की मौत का मातम करता रहा,
हर शय की मौजूदगी को नकारता रहा।

टी बी जैसी बीमारी की तमन्ना थी जो पूरी हो गई।
एक और तमन्ना थी जवानी में मर जाने की,
वो पूरी न हुई।

बुढ़ापे के बिस्तर की मौत को बहुत ज़लील मौत मानता था

जॉन एलिया !! (अजमल सिद्दीक़ी)

जॉन एलिया का जन्म 14 दिसम्बर, 1931 को उत्तर प्रदेश में अमरोहा के एक मशहूर ख़ानदान में हुआ। उनके वालिद अल्लामा शफ़ीक़ हसन एलिया अदब में ख़ासी दिलचस्पी रखते थे और शायर होने के साथ साथ नजूमी भी थे। जॉन घर में सब से छोटे थे और महज़ 8 बरस की उम्र में पहला शेर कह चुके थे। उर्दू और फ़ारसी में मास्टर्स की डिग्री, बहुत सी किताबों का तर्जुमा और शायरी के मजमुए इनकी अदबी हैसियत की अलामत हैं।

जॉन 1957 में पाकिस्तान हिजरत कर गए और उसके बाद कराची में आबाद भी रहे और बरबाद भी। एक ज़र खेज़ मुसन्निफ़ लेकिन कलाम की इशाअत से परहेज़ रखने की ज़िद उनकी पेचीदा लेकिन दिलचस्प शख़्सियत का हिस्सा थी। इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है के जॉन जब 60 बरस के हो गए तब उनका पहला शेअरी मजमुआ ‘शायद’ शाया हुआ। हालाँकि मुशायरों और महफ़िलों में शिरक़त करने की वजह से उनका नाम पहले से बुलंदी पर था लेकिन इस मजमुए ने जॉन को हमेशा के लिए उर्दू अदब की अज़ीम शख़्सियात के दरम्यान ला कर खड़ा कर दिया। इस मजमुए के मुक़द्दमे (preface) ने न सिर्फ़ जॉन के फ़िक़्र-ओ-फ़न पर रौशनी डाली साथ ही उनकी गहरी सोच और नायाब मुहाविरे को समझने का मौक़ा भी मयस्सर किया। जॉन की बाक़ी किताबों की इशाअत उनके इन्तेक़ाल (2003) के बाद हुई जिसमें दुसरे मजमुए के तौर पर ‘यानी’ को याद रखा जाता है। फिर ‘गुमाँ’ (2004), ‘लेकिन’ (2006) और ‘गोया’ (2008) में शाया हुए।

जॉन ने मुख़्तसर वक़्त के लिए बतौर मुदीर भी काम किया जिसमें उर्दू रिसाले ‘इंशा’ का नाम मख़्सूस है। इसी दौरान इनकी मुलाक़ात ज़ाहिदा हिना से हुई जो ख़ुद एक मुसन्निफ़ थीं। मुलाक़ातों का सिलसिला मोहब्बत तक पहुँचा और फिर शादी की सूली चढ़ गया। जॉन को ज़ाहिदा से दो निहायत ख़ूबसूरत बेटियाँ और एक ज़हीन बेटा हुआ। इसी बेटे की नज़र जॉन ने एक शाहकार नज़्म ‘दरख़्त-ए-ज़र्द’ लिखी। जॉन और ज़ाहिदा ने आपसी अनबन के चलते 1980 में अलहदगी इख़्तेयार कर ली, जिसने जॉन के गुदाज़ दिल को चाक कर दिया और जॉन बाक़ी वक़्त अपनी बरबादी का जश्न शराब पी पी कर मनाते रहे।

ये ठीक है के गर्दिशे हालात के सबब
दिल भी मेरा तबाह है, हिम्मत भी पस्त है
तुम सोचती बहुत हो तो फिर ये भी सोचा
मेरी शिकस्त असल में किस की शिकस्त है

जॉन जितने मश्हूर ज़िन्दगी रहते थे, उसके कहीं ज़्यादा मश्हूर अपनी वफ़ात के बाद हुए। जॉन की शायरी में नयेपन और अंदाज़े बयाँ का जो मेल है वो नई नस्ल को ख़ूब भाता है। जॉन साहब की शायरी के लिए हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उनके क़रीबी दोस्त ख़ालिद अंसारी का जिनकी वजह से उनकी शायरी की किताब मंज़र-ए-आम पर उनकी ज़िन्दगी रहते शाया हुई। अपनी शायरी के बारे में देखिये जॉन साहब क्या कहते है:-

“अपनी शायरी का जितना मुंकिर (ख़ारिज करने वाला) मैं हूँ, उतना मुंकिर मेरा कोई बदतरीन दुश्मन भी न होगा। कभी-कभी तो मुझे अपनी शायरी बुरी, बेतुकी, लगती है, इसलिए अब तक मेरा कोई मज्मूआ शाये नहीं हुआ और जब तक ख़ुदा ही शाये नहीं कराएगा उस वक़्त तक शाये होगा भी नहीं।”

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