“तश्बीह और इश्तआरा”

Javed Alam
2 min readSep 19, 2016

--

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है।

कल चौदहवी की रात थी , शब् भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा।

दोस्तों ऊपर दो बहुत ही मश्हूर शेर लिखें हुए हैं , देखने से लगता दोनों ही शायरों ने अपने अपने मेहबूब की जम कर तारीफ की है, मीर ने लब को गुलाब की पंखुड़ी सा कहा हैं तो इब्ने इंशा ने चेहरे को चाँद कहा है। लेकिन एक ख़ास वजह है जो इन दोनों शेरों को सना ए लफ्ज़ी के ऐतबार से जुदा करती है।

पहले शेर को ग़ौर से पढ़िए इस शेर में शायर ने अपने मेहबूब के लबों को गुलाब की पंखुड़ी जैसा कहा हैं, लेकिन गुलाब नहीं कहा। यानी जब किसी चीज़ या शख्स को दूसरे के जैसा कहा जाए तो इसे “तश्बीह”/उपमा/simile कहते हैं।
और अगर किसी शख्स या चीज़ को हूबहू किसी दूसरी चीज़ ही मान लिया जाये तो उसे “इस्तआरा”/रूपक/Metaphor कहते हैं, जैसे दूसरे शेर में “कुछ ने कहा ये चाँद है” सीधा चाँद ही कह दिया हैं। हम अगर अपनी आम बोलचाल पर ग़ौर करे तो इसका इस्तेमाल हम जाने अनजाने में खूब करते हैं , जैसे बड़े लोग अक्सर दुआ देते हैं कि ख़ुदा तुझे चाँद सा बेटा दे या बेटे के घर आने पर माँ कहती है कि मेरा चाँद आ गया, दोनों बातों में भी यही फर्क हैं। तश्बीह यानी शुबहा, किन्हीं दो चीजों में शुबहा होना। और इस्तआरा यानी अरबी लफ़्ज़ मुस्तआर/ उधार लेना।

इसी तरह के कुछ शेर आप भी यहाँ शेयर करे जिसमे तश्बीह और इस्तआरा की झलक मिलें।

(जावेद आलम)

--

--