निदा फ़ाज़ली: शहर-ए-उर्दू में एक कुटिया
“१२ अक्तूबर निदा फ़ाज़ली का जन्म दिन है। १९३८ में दिल्ली के एक कश्मीरी ख़ानदान में मुक़्तदा हसन की पैदाइश हुई। ग्वालियर में बड़े हुए। बँटवारे के कुछ साल बाद उनके माँ बाप उस तरफ़ कूच कर गये लेकिन मुक़्तदा हसन ने यहीं रहने का फ़ैसला किया। किसी मंदिर में सूरदास का लिखा एक पद सुनकर उन्होंने शायरी करने की ठानी और मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली हो गये।”
निदा फ़ाज़ली की शायरी के बारे में कैसे लिखूँ ये मेरी मुश्किल भी ख़ुद निदा फ़ाज़ली ने ही हल कर दी। उनकी कुलियात का उ’नवान “शहर में गाँव” है। किसी भी ज़बान के अदब को एक शहर तसव्वुर किया जा सकता है। शहर-ए-उर्दू भी ऐसा ही वुसीअ और ख़ूबसूरत शहर है। इस शहर में कई क़िस्म की इमारतें हैं। मिस्लन, फ़ैज़ जैसे शायर का आप शहर के आ’लीशान महलों में शुमार कर सकते हैं। फ़ैज़ के यहाँ वही महलों वाली बातें हैं: बारीक नक़्क़ाशी, मुग़ल बाग़ीचे, फव्वारे, दीवान ख़ाने में क्लासिकल अंदाज़ से बनायी हुई तस्वीरें, संग-ए-मरमर की ठंडक, वग़ैरा।
इसी शहर में, महल से कुछ ही दूर, एक बड़ी सी कुटिया है जिसका नाम निदा फ़ाज़ली है। निदा फ़ाज़ली में वो तमाम बातें हैं जो कुटिया में पायी जाती हैं: सादगी, कुशादगी, अपनापन और एक ऎसी राहत जो महलों में मह्सूस नहीं होती। इस कुटिया के ठंडे मिट्टी के फ़र्श पर बैठकर शाम ढले कुछ लोग “बेसन की सौंधी रोटी” खाकर अपनी थकान मिटाते हैं। कुटिया की खिड़की से शहर की भीड़ नज़र आती है।
हर तरफ़, हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी
और हर आदमी के कई पहलू होने का बयान निदा फ़ाज़ली से अच्छा शायद ही किसी ने किया हो।
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
शहर में कुटिया होना आसान नहीं है। घर के हर शख़्स को एक मजबूरी का एहसास सताता है।
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
शहर में सदियों से कई तरह के लोग आ बसे हैं। कुटिया इन्हें अपना समझती है। वो अपार्टमेंट हों या महल, उसी माटी पर खड़े हैं जो कुटिया की रग रग में बसी है।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों का
किसको मा’लूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं
कुटिया की खिड़की से महल नज़र आता है पर उसे कोई रश्क महसूस नहीं होता, शर्त ये कि शहर का कोई घर बरबाद न हो।
हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतजाज भी हो
निदा फ़ाज़ली जैसे ज़हीन शख़्स को ऐसे ख़याल आएँ इसमें हैरत की क्या बात है?
ज़ेहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला
जिसे निगाह मिली उसको इंतज़ार मिला
लेकिन ये इंतज़ार मायूसी का सबब नहीं बनता। निदा फ़ाज़ली जानते हैं कि मुहब्बत पाने के लिये दम चाहिये।
दिल में न हो जुरअत तो मुहब्बत नहीं मिलती
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
उनकी मुहब्बत कमाल की आज़ाद ख़याल है। और शायर वफ़ा के नाम पर रोते हैं, लेकिन निदा फ़ाज़ली इस रोने को बेकार समझते हैं।
मुहब्बत में वफ़ादारी से बचिये
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये
ये बात तल्ख़ी से नहीं, बल्कि एक ठहरे पानी के से सुकूत से कही गयी है — एक फ़लसफ़ी का सुकूत। चुनांचे, निदा फ़ाज़ली के यहाँ ज़िंदगी मायूसी का नहीं, उम्मीद का नाम है।
उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल, जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल, जो हुआ सो हुआ
दुनिया में कई जुड़वाँ शहर हैं। शहर-ए-उर्दू से लगकर भी एक शहर है, हिन्दी। दोनों शहरों की कुछ इमारतों के साये एक दूसरे की ज़मीनों पर पड़ते हैं। बल्कि कई इमारतें तो ऐसी हैं कि दोनों शहरों में गिनी जाती हैं। कुटिया निदा फ़ाज़ली उन्हीं में से एक है। और उसे ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता।
फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ाकर देखो
निदा फ़ाज़ली ने तो प्यार भरा हाथ बढ़ाया है। थामना न थामना हम पर है।