पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियाँ

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
3 min readSep 20, 2016
Image : Manish Gupta

‘मीर’ के शेर का अह्‌वाल कहूं क्या ‘ग़ालिब’
जिस का दीवान कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं
[अहवाल — condition कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर — less than garden of Kashmir]

मीर तक़ी ‘मीर’ (1723–1810) उर्दू और फ़ारसी के अज़ीमतर शायर थे। बचपन आगरे में गुज़रा और 11 बरस की उम्र में वालिद के इन्तेक़ाल के बाद दिल्ली आ गये। यहाँ अपनी तालीम पूरी करने के बाद शाही शायर बन गये और अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद, असफ़-उद्दौला (1748–1797) के दरबार मे लखनऊ चले गये और बाकी ज़िन्दगी यहीं गुज़ारी। मीर ने अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से नेस्त-ओ-नाबूद दिल्ली को बहुत क़रीब से देखा और इस दर्द को बहुत शिद्दत से महसूस किया।

हमको शायर न कहो मीर, कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

मीर तक़ी ’मीर’ की शायराना अज़मत के ए’तिराफ़ में मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ फ़रमाते हैं -
‘ग़ालिब’ अपना ये अक़ीदा है बक़ौल-ए-‘नासिख़’
आप बे-बहरा है जो मो’तक़िद-ऐ-’मीर’ नहीं
[बे-बहरा — Destitute, cut off मो’तक़िद-ए-’मीर’ — believer of Meer]

इस शे’र का दूसरा मिसरा शेख़ इमाम बख़्श ‘नासिख़’ का है, जिन का कलाम मुश्किल पसन्दी के लिये मशहूर है। उनके जिस शे’र का मिसरा ‘ग़ालिब’ ने इस्तेमाल किया है वह यूँ है-
शुबह ‘नासिख़’ नहीं, कुछ ‘मीर’ की उस्तादी में
आप बे-बहरा है जो मो’तक़िद-ए-‘मीर’ नहीं
[अक़ीदा — Fundamental Doctrine of Belief, ब-क़ौल-ए-’नासिख़’- according to Nasikh (उर्दू शायर)]

जब किसी मसले या काम के हल में कोई कसर रह जाती है या मज़ीद परेशानी की सूरत पैदा होने लगती है तो लोग कुछ तंज़ से और कुछ इज़हार-ए-हक़ीक़त के लिये कहते हैं कि ‘अभी दिल्ली दूर है’। इस फ़िक़रे की बुनियाद मीर तक़ी ‘मीर’ के इस शे’र पर है —
शिकवा-ए-आबला अभी से ‘मीर’?
है पियारे हुनूज़ दिल्ली दूर !
(शिकवा-ए-आबला= पाँवों में छालों की शिकायत, हुनूज़ — yet)

इसी तरह किसी मुश्किल मंज़िल से सही सलामत गुज़र जाने पर अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए ये मिसरा पढ़ा जाता है: जान है तो जहान है प्यारे !यह भी ‘मीर’ का मिसरा है-
‘मीर’! अमदन भी कोई मरता है?
जान है तो जहान है प्यारे !
(अमदन=जान-बूझ कर)

‘मीर’ के ये अश’आर, आज कहावतों की तरह इस्तेमाल होते हैं और हम सभी को इस बात का इल्म ही नही कि इनका ख़ालिक़ कौन है । जब कोई शख़्स किसी दूसरे से बतौर हमदर्दी और दोस्ती, उस का हाल पूछता है तो वह शख़्स शुक्रिया अदा करते हुए यूँ कहता है- तुम ने पूछा तो मेहरबानी की ! यह भी ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ के शे’र का एक मिसरा है -
हाल-ए-बद गुफ़्तनी नहीं मेरा
तुम ने पूछा तो मेहरबानी की
(गुफ़्तनी= कहने के लायक)

शायरी में अलफ़ाज़ के ऐसे इस्तेमाल और तल्लफ़ुज़ देखने और सुनने को मिलते हैं जो बुनियादी अल्फ़ाज़ से मुख़्तलिफ़ होते हैं, जैसे मिसाल के तौर पर ऊपर एक मिसरे में ‘पियारे’ इस्तेमाल किया गया है। इस क़िस्म के इजतिहादात मीर के यहाँ काफ़ी तादाद में देखने को मिलते हैं और इन्हें इसलिए बाँधा जाता है ताकि मिसरा वज़्न से ख़ारिज न हो जाए।

मीर तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा बरस गुज़र गये हैं, आज भी उनका कलाम उतना ही मक़बूल है जितना उस ज़माने में रहा होगा। मीर कह गए हैं:-
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियाँ

कुछ शायरों ने मीर से अपनी अक़ीदत का इज़हार कैसे किया है इसकी कुछ मिसालें यहाँ पेश कर रहे हैं -

‘सौदा’ तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
होना है तुझको ‘मीर’ से उस्ताद की तरफ़

न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब
‘ज़ौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊँ ‘अकबर’
नासिख़-ओ-ज़ौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ

शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ

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