लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में -बहादुर शाह ‘ज़फ़र’

Chander Verma
Urdu Studio
Published in
6 min readOct 24, 2016

क़द लंबा, रंग सांवला। बहुत ही दुबला-पतला जिस्म लेकिन बड़ी-बड़ी रौशन आँखें और आँखों के नीचे उभरी हुईं हड्डियाँ, लंबी सी गर्दन पर तक़रीबन मुंडा हुआ और उस पर एक पतली सी नाक। दाढ़ी में एक आध सियाह बाल, चेहरे पर झुर्रियां लेकिन बावजूद इन सब के अंदाज़ में करारापन । सब्ज़ कमख़ाब पायजामा और ढाके की मलमल का कुर्ता ज़ेब-ऐ-बदन। ये हैं हमारे आख़िरी शहंशाहे-हिंदुस्तान जनाब बहादुर शाह ज़फ़र।

मिर्ज़ा अबुल मुज़फ़्फ़र मोहम्मद सिराजुद्दीन उर्फ़ बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को दिल्ली के लाल क़िले में हुआ। उनकी मां ललबाई हिंदू परिवार से थीं। इनकी तालीम अरबी और फ़ारसी में लाल क़िले में ही हुई। बचपन से ही ज़फ़र को शायरी, मौसिक़ी और ख़ुश-नवीसी (calligraphy) में इंतेहाई दिलचस्पी थी। ख़ुश-नवीसी के शौक़ का आलम ये था के हाथ से लिखी क़ुरआन की किताबें दिल्ली की नामी मस्जिदों में नज़राने की शक़्ल में देते थे।

1837 के आख़िरी महीनों से ज़फर के वालिद अकबर शाह -II बीमार रहने लगे और बिस्तर पकड़ लिया। ज़फर अकबर का इंतेख़ाब नहीं थे, उनकी नज़र में सल्तनत के वली अहद थे, मुमताज़ बेगम के चश्म-ए-चिराग़ जहांगीर बख़्त उर्फ़ मिर्ज़ा जहांगीर, लेकिन अपने ला-उबालीपन के चलते मिर्ज़ा जहांगीर अंग्रेज़ों की आँख को खटकते थे। 19 बरस की छोटी उम्र में एक मर्तबा British resident, Archibald Seton की कोर्ट में बेइज़्ज़ती कर चुके थे। दूसरी मर्तबा उन्हीं पर गोली चला दी, Seton तो बच गए लेकिन उनके गार्ड की मौत हो गई। इस जुर्म की सज़ा के तौर पर उन्हें जिला वतनी के तहत इलाहबाद भेज दिया गया। इस बीच 62 बरस की उम्र में अकबर शाह -II की मौत हो गई और 28 सितंबर 1838 को ज़फ़र मुग़लिया सल्तनत के आख़िरी शहंशाह बन गए । शहंशाह तो कहने के लिए थे, इस वक़्त सल्तनत की हद महज़ लाल क़िले, दिल्ली (शाहजहाँबाद) तक महदूद थी।

या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता

ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना बनाया होता

ज़फ़र आज़ाद ख़्याल, अमन पसंद, हर दीन-ओ-मज़हब का ऐहतराम करने वाले, भोले, ख़लीक़ (सुशील), रहम-दिल, ख़ुदा परस्त और दिलेर शख़्स थे। ऐश-ओ-इशरत की ज़िन्दगी के बावजूद इन्होंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया न ही किसी और अय्याशी की लत थी। ज़फर को आवाम इज़्ज़त और ऐतराम की नज़र से देखती थी। हिन्दू और मुस्लमान दोनों इनके अख़लाक़ और नेकी की वजह से इनसे बेहद मोहब्बत करते थे। ज़फर हिंदुओं के जज़्बात और रिवाज़ का इस क़द्र एहतराम करते थे के बग़ावत के ज़माने में हिंदुओं और मुसलमानों के दरम्यान इत्तेहाद क़ायम रखने के लिए इन्होंने गाय के मांस पर पाबंदी लगा दी थी और इस फ़रमान की मुख़ालफ़त करने वाले को मौत की सज़ा का हुक्म जारी कर रखा था। इस से इनकी कुशादगी दूर-अंदेशी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।इन्हें अपनी चार बीवीओं; बेग़म अशरफ़ महल, बेग़म अख़्तर महल, बेग़म ज़ीनत महल और बेग़म ताज महल में से ज़ीनत महल सबसे अज़ीज़ थी। उनके बहुत से बेटे और बेटियाँ थी।

‘ज़फ़र महल’ बहादुर शाह ज़फ़र के शासनकाल में बनी मुग़लों की आख़िरी ईमारत थी, जिसे दिल्ली (महरौली) में बनाया गया। इसी महल की बालकनी से ज़फ़र शहर और महरौली के ख़ूबसूरत बागों का नज़ारा देखते थे। लेकिन पेचीदा हालात के मद्देनज़र ये नज़ारे ज़फ़र की रूह को तस्कीं न पहुँचा पाये।

जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर मेरा चैन गया मेरी नींद गई
तुम्हें मेरी न मुझ को तुम्हारी ख़बर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

यही ज़माना था जब ‘फूल वालों की सैर’ नाम का जश्न इस इलाक़े में मनाया जाने लगा। जश्न के दौरान ज़फ़र अपने कुन्बे के साथ महरौली में ख़्वाजा बख़्तियार काकी की दरगाह पर ज़यारत के लिए जाते थे। असल में इस महल की तामीर उनके वालिद ने करवाई थी लेकिन महल के सदर दरवाज़े की तामीर ज़फ़र ने करवाई थी और ज़फ़र ने इसका नाम बदलकर फिर ज़फर महल रखा। ज़फ़र की ये ख़्वाहिश थी कि उनके इंतेक़ाल के बाद उन्हें वहीँ दफ़्न किया जाए।

मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परी,
वो जो तेरा आशिक़-ए-जार था, तह-ए-ख़ाक उसको दबा दिया

1857 में जब हिंदुस्तान की आज़ादी की चिंगारी भड़की तो सभी बाग़ी सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने ज़फ़र को हिंदुस्तान का शहंशाह माना और उनकी अगुवाई में अंग्रेजों से टक्कर ली, जिसे अंग्रेजों ने ग़द्दारी और बाग़ीपन क़रार दिया। इस मुख़ालिफ़त के मद्देनज़र ज़फ़र को अंग्रेज़ों से बचने के लिए हुमायूँ के मक़बरे में पनाह लेनी पड़ी, जहाँ से आख़िरकार अंग्रेज़ी फ़ौज ने उन्हें, उनकी बेगम ज़ीनत महल और बच्चों के साथ गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। ज़फ़र को इस बीच बड़ी तक़लीफ़ और फ़ज़ीहत से गुज़रना पड़ा। इन तक़लीफ़ों का सुन के ही कलेजा मुँह को आता है। इनके तीन बेटों और एक नाते का सर क़लम कर दिया गया और उनके कटे सरों को लंबे वक़्त तक नुमाईश के लिए रखा गया। अपनों और दूसरे बाग़ियों की शहादत, अंग्रेज़ों से मिली ज़िल्लत और 42 दिन चले गद्दारी के मुकदम्मे के बाद इन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई जिसे बाद में उम्र क़ैद में तब्दील कर दिया गया। 1858 में इन्हें बेगम ज़ीनत महल, दो बच्चों और बहू के साथ रंगून जेल भेज दिया गया। ज़िन्दगी के आख़िरी चार बरस इन्होंने यहीं बड़ी दुश्वारी और ज़िल्लत में काटे।

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

ज़फ़र का नाम उर्दू के नामवर शायरों में शुमार होता है। इनकी हस्सास शायरी में मुग़ल सल्तनत के ज़वाल, दर्द और लाचारी को महसूस किया जा सकता है। ज़फ़र ने इब्तेदाई शायरी मिर्ज़ा नसीर और बाद में ज़ौक़ की रहनुमाई में की। ये शोरा इनकी शायरी की मरम्मत किया करते थे। 1854 में ज़ौक़ के इंतेक़ाल के बाद ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से भी शायरी के मुआमले में हिदायात लीं या कह सकते हैं के उन्हें उस्ताद तस्लीम किया, लेकिन दिल से नहीं।

हाली ने ग़ालिब और ज़फ़र को लेकर कई लतीफ़े कहे हैं। एक बार रमज़ान गुज़र जाने के बाद जब ग़ालिब बहादुर शाह ज़फ़र के क़िले में गए तो बादशाह ने पुछा, “मिर्ज़ा ! तुमने कितने रोज़े रखे ?” मिर्ज़ा ने जाने सवाल में क्या सुना और समझा के अर्ज़ करने लगे, “पीरो मुर्शिद ! एक नहीं रखा” और ये क़िता पढ़ा -

इफ़्तारे सूम की कुछ अगर दस्तगाह हो
इस शख़्स को ज़रूर है रोज़ा रखा करे
जिस पास रोज़ा खोल के खाने को कुछ न हो
रोज़ा अगर न खावे तो नाचार क्या करे

और फिर एक रुबाई भी पेश की -

सामने ख़ूर व् ख़ाब कहाँ से लाऊँ
आराम के असबाब कहाँ से लाऊँ
रोज़ा मेरा ईमान है ग़ालिब लेकिन
खस्ख़ानः व् बरफ़ाब कहाँ से लाऊँ

“बहुत नक़्क़ाद मानते हैं के ज़फ़र की ज़्यादातर शायरी उनके रहनुमाओं की ख़ैरात है (ज़्यादातर ग़ालिब की), हालाँकि इस बात के कोई सुबूत नहीं मिलते। दोनों की शायरी के रंग मुख़्तलिफ़ हैं। ज़फ़र की शायरी आम-फ़हम और साफ़-सुथरी है, बग़ैर किसी पेचीदग़ी के, ग़ालिब के एक दम उलट। ज़फ़र की ज़बान में उर्दू की झलक ज़्यादा मिलती है और ग़ालिब की शायरी में फ़ारसी की। 1853–54में जब ये बात मशहूर हो गयी के ज़फ़र शिया हैं तो ज़फ़र ने ग़ालिब ही को फ़ारसी में ‘दमअ उल्बातिल’ नाम की मस्नवी लिखने को कहा।”

1862 में 87 साल की उम्र में कहा जाता है के ज़फ़र को कोई शारीरिक बीमारी हुई थी। 1862 के अक्टूबर महीने में उनकी हालत इतनी ख़राब हो गई के चम्मच से ही खाना खा पाते थे, 3 नवम्बर के बाद से चम्मच से खाना खिलाना भी मुश्किल हो गया। 6 नवम्बर को ब्रिटिश कमिश्नर एच.एन. डेविस के मुताबिक़ ज़फ़र को लकवा हो गया था और 07 नवम्बर 1862 को इनका इंतेक़ाल हो गया।

पये-मग़फ़िरत मेरी क्या ‘ज़फ़र’ पढ़े फ़ातिहा कोई आनकर
वह जो टूटी क़ब्र का था निशाँ उसे ठोकरों से मिटा दिया

1991 तक इस बात की कोई तस्दीक़ नहीं कर पाया के उन्हें दफ़्न कहाँ किया गया था। अलबत्ता 1991 में उनकी क़ब्र को तलाश कर (पक्के तौर पर ये क़ायम नहीं हो पाया) वहां उनकी याद में एक मक़बरा बना दिया गया। ज़फ़र का शाही हीरे-मोतियों और बेशुमार नगीनों से जड़ा ताज अंग्रेजों ने लाल क़िले से बरतानिया के शाही ज़ख़ीरे में भेज दिया।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

कितना है बदनसीब “ज़फ़र” दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

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