सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है;
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
- राम प्रसाद बिस्मिल
ख़ुद नविश्त सवानेह उमरी लिखना निहायत मुश्किल काम है, क्योंकि जहाँ ख़ुद को समझते-समझते उम्र बीत जाती है और फिर भी ख़ुद से अजनबी से रहते हैं वहाँ किसी की ज़िन्दगी को कागज़ पर उतारना जोख़िम का काम तो है ही इस बात का फ़ैसला करना कि उस ज़िन्दगी के किन पहलुओँ का इन्तेख़ाब सवानेह उमरी के लिए किया जाए और भी पेचीदा काम है। बहुत मुमकिन है कि मिर्च मसाला कम पड़ जाए और कहानी बेस्वाद लगे या मिर्च मसाला इतना हो जाए कि कहानी फ़िल्मी लगे। अब अगर ये ख़ुद नविश्त सवानेह उमरी एक ऐसे शख़्स की हो जिस की पहली मोहब्बत अपना मुल्क और दूसरी मोहब्बत शायरी फिर -
क्या ही लज़्ज़त है कि रग-रग से यह आती है सदा
दम न ले तलवार जब तक जान बिस्मिल में रहे
बिस्मिल ने ख़ुद सवानेह उमरी जिन हालात में कलम की, उन हालात से गुज़रने का तसव्वुर भी रोंगटे खड़े करने वाला है। ज़रा इस जुम्ले की तरफ़ तवज्जोह करें, “….. आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को ये अशआर का ज़िक्र कर रहा हूँ, मौक़ा माईल भी है और हयात-ए-हाइल भी, 19 दिसम्बर, 1927 ई., सोमवार को सुबह साढे छ: बजे इस जिस्म को फाँसी पर लटका देने की तारीख़ तय हो चुकी है। वक़्त का यही फ़ैसला है तो मंज़ूर तो करना ही होगा।”
ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों में देशवासियों को याद करते हुए बिस्मिल लिखते हैं -
महसूस हो रहे हैं बादे फ़ना के झोंके
खुलने लगे हैं मुझ पर असरार’ ज़िन्दगी के
यदि देशहित मरना पड़े मुझको अनेकों बार भी
तो भी न में इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी
हे ईश! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो
और 19 दिसम्बर को बन्देमातरम् और भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख़्ते के निकट गए। चलते वक़्त बिस्मिल कह रहे थे:
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाक़ी न मैं रहूँ न मेरी आरज़ू रहे
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे
फिर कहने लगे :“I wish the downfall of the British Empire.” (मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ)
फिर बिस्मिल तख़्ते पर चढ़े और ‘विश्वानिदेव सवितुर्दुरितानि’ मन्त्र का जाप करते हुए फँदे से झूल गए।
11 जून 1897 को पैदा हुआ ये बहादुर शख़्स 19 दिसंबर 1927 को महज़ 30 बरस की उम्र में (जिस में से 11 बरस क्रान्तिकारी की तरह जिये) मुल्क की ख़ातिर शहीद हो गया। बिस्मिल की ख़ुद नविश्त सवानेह उमरी एक ज़िंदा तस्वीर है उस वक़्त की, उन हालात की जो किसी भी शख़्स को ज़िन्दगी के सही मानी सीखा दे और उसका तआरुफ़ तारीख़ के उन लम्हों से से करवा दे जिसकी बदौलत वो आज आज़ादी को हक़ तस्लीम करता है।
आप भी ज़रूर पढ़ें।