शिव संहिता का अद्वैत वेदांत

Love Sharma
Vedic Pathshala
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15 min readNov 15, 2019

Love Sharma, Kathirasan K.

सार

शिव संहिता को हठ योग परंपरा के लिए तीन मुख्य ग्रंथों में से एक के रूप में जाना जाता है। अन्य दो “हठ योग प्रदीपिका” और “गेरांड संहिता” हैं। परंतु कई लोग यह नहीं जानते कि शिव संहिता, उपनिषदों द्वारा सिखाए जाने वाले ब्रह्मज्ञान या आत्म-ज्ञान के विषय में स्पष्ट विवरण भी करता है। हालाँकि इसे पारंपरिक हठ योग शास्त्र में से एक मानते है, परंतु यह न केवल एक हठ योग शास्त्र है, बल्कि वेदांत-शास्त्र भी है। यह अद्वैत वेदांत से प्रभावित है और इसी कारण से किसी अन्य ज्ञात हठ योग शास्त्रों से अलग है।

शिव संहिता की खास बात यह भी है कि इसमें सनातन धर्म (या हिंदू धर्म) की शिक्षाओं को दो जीवन शैलियों — धर्म, अर्थ और काम (प्रवृत्ति मार्ग) तथा मोक्ष (निवृत्ति मार्ग) में आयोजित किया है। इस शास्त्र ने इन दो जीवन शैलियों को बहुत स्पष्ट और व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित किया है। यह बहुत दुर्लभ है क्योंकि अधिकांश वेदांत ग्रंथ आत्म-ज्ञान या ब्रह्मविध्या शुरू करने से पहले प्रवृत्ति मार्ग को प्रस्तुत नहीं करते हैं, जो आमतौर पर साधन-चतुष्ट्या की एक संक्षिप्त चर्चा के बाद किया जाता है। लगभग सभी वेदांत ग्रंथों में धारणा होती है कि पाठक एक योग्य व्यक्ति है, पारंपरिक रूप से एक अनुशासनिक (सन्यासी)। दूसरी तरफ, शिव संहिता ने ज़िम्मा लिया है, सनातन धर्म जैसे प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग की शिक्षाओं को व्यवस्थित करने का।

अपने पांच अध्यायों में से शिव संहिता का पहला अध्याय सनातन धर्म के बड़े संदर्भ में वेदांत के बारे में है। यह वास्तव में किसी भी साधक के लिए एक आशीर्वाद है जो शिव संहिता के पहले अध्याय का उपयोग करके वेदांतिक अध्ययन शुरू करना चाहता है।

इस रीसर्च पेपर (शोध पत्र) का आधार श्री काथीरसन के. का लिखा गया “शिव संहिता — प्रथम अध्याय” भाष्य “The Advait Vedanta of Siva Samhita” है।

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परिचय

अपने पांच अध्यायों में से शिव संहिता का पहला अध्याय अद्वैत वेदांत के बारे में है और यही इस शोध पत्र का मुख्य केंद्र बिंदु है।

शिव संहिता के पहले अध्याय की शिक्षाऐं, भगवान श्री शंकराचार्य द्वारा संगठित लोकप्रिय अद्वैत वेदांत परंपरा से बहुत अधिक समानता रखती है। जेम्स मॉलिंसन जैसे आधुनिक विद्वान इसे एक सामान्य शास्त्र नहीं मानते हैं, बल्कि शिक्षाओं का संकलन मानते हैं। मिर्सिया एलीएड ने शिव संहिता को बौद्ध दृष्टिकोण से समझाया है, जिससे कई विद्वान भ्रमित होते है, जैसे “शून्य” शब्द है — इसे बौद्ध अविष्कार के रूप में भी माना जाता है, जबकि यह शब्द और विचार भी वेदांत परंपरा में पाया जाता है लेकिन अलग अर्थ होता है।

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शिव संहिता का वर्गीकरण एक हठ योग शास्त्र होने के कारण यह वेदांतीयो से अनजान हो गया था। यह भ्रांति “अद्वैत” शब्द को लेकर उत्पन्न हुई है। ध्यान-योग की निर्विकल अवस्था को भी अद्वैत कहा जा सकता है। लेकिन पहले अध्याय के हर श्लोक के माध्यम से, यह स्पष्ट होता है कि यह एक दुर्लभ वेदांत शिक्षण है।

शिव संहिता की विशेष बात यह भी है कि इसमें सनातन धर्म (या हिंदू धर्म) की शिक्षाओं को दो जीवन शैलियों — धर्म, अर्थ और काम (प्रवृत्ति मार्ग) तथा मोक्ष (निवृत्ति मार्ग) में विभाजित किया है। यह बहुत दुर्लभ है क्योंकि अधिकांश वेदांत ग्रंथ आत्म-ज्ञान शुरू करने से पहले प्रवृत्ति मार्ग का विवरण नहीं देते हैं, जो आमतौर पर साधन-चतुष्ट्या की एक संक्षिप्त चर्चा के बाद किया जाता है। लगभग सभी वेदांत ग्रंथों में धारणा होती है कि पाठक एक योग्य व्यक्ति है, पारंपरिक रूप से एक अनुशासनिक (सन्यासी) है। यह शिव-संहिता में देखने को नहीं मिलता। क्यूँकि इसके शेष अध्याय हठ-योग केंद्रित है इसीलिए इसका प्रथम अध्याय में प्रवृत्ति मार्ग या कर्म सिद्धांत का वर्णन अच्छी प्रकार से किया गया है।

शिव समिति में कुल पांच अध्याय हैं और निम्न विषयों पर आधारित हैं:

अध्याय 1 — अद्वैत वेदांत (96 श्लोक)
अध्याय 2 — हठ योग और अद्वैत वेदांत (57 श्लोक)
अध्याय 3 — हठ योग (115 श्लोक)
अध्याय 4 — हठ योग (111 श्लोक)
अध्याय 5 — हठ योग और अद्वैत वेदांत (260 श्लोक)

हठ योग और आत्मज्ञान का सम्बंध

हमारे ऋषियों ने हमेशा ज्ञान को सर्वोपरि रखा है, और ज्ञान अर्जित करने के लिए हमारे मन और बुद्धि पर विशेष ध्यान दिया। मन अशांत है तो ब्रह्म-ज्ञान तो दूर हम हमारे रोज़-मर्रा के कामों पर भी ध्यान नहीं दे सकते। और मन शांत के अनेक मार्ग बताए गए है जैसे भक्ति मार्ग, निष्काम कर्म मार्ग और हठ-योग या ध्यान मार्ग। इन मार्गों से चित्त-शुद्धि होती है, अर्थात मन शांत होता है। आपको जानकर अच्छा लगेगा कि कम्पनियाँ या मोबाइल ऐप जैसे “Calm” और “Headspace” प्रति वर्ष करोड़ों का व्यवसाय करते है — जो सिर्फ़ लोगों को ध्यान करने में मदद करते है।

इस संदर्भ में चित्त-शुद्धि हमें आत्मा-ज्ञान लेने में लाभदायक सिद्ध होगी। और अद्वैत वेदांत हमें केवल मन-शांत करने को नहीं बोलता, अपितु इसके सहारे ज्ञान अर्जित करने को भी आग्रह करता है। जिस प्रकार एक शिशु जन्म से मुक्त नहीं होता, उसी प्रकार शांत मन, बिना ज्ञान के, मुक्त नहीं हो सकता। अविध्या का अस्तित्व शांत व अशांत मन दोनो में है।

प्रथम अध्याय आत्मा-ज्ञान के लिए उपयोग होगा और यदि साधक इसे समझने में असक्षम है तो वह अन्य अध्यायों से हठ-योग या ध्यान द्वारा चित्त-शुद्धि कर अपनी मानसिक क्षमताओं को बढ़ाए और स्वयं को योग्य बनाए। जैसा अपरोक्षअनुभूति — १४३ में कहा है:

एभिरङ्गैः समायुक्तो राजयोग उदाहृतः ।
किञ्चित्पक्वकषायाणां हठयोगेन संयुतः ॥143

इस प्रकार राजयोग (आत्मज्ञान) का वर्णन किया गया है जिसमें इन चरणों का समावेश है।
जिनके विषयोंमें राग नहीं रहे है उन योगियों के लिए हठयोग युक्त है।

वेदांत एक ज्ञान साधना है, जबकि हठ योग मस्तिष्क (चित्तशुद्धी) के शुद्धीकरण की साधना है, जिससे आत्मज्ञान अर्जित करने में सहायता मिलती है।

हठ योग योग्यता और चित्तशुद्धी के विकास के लिए एक जटिल प्रणाली है क्योंकि यह भगवत गीता में सिखाए गए कर्म योग की परंपरागत वैदिक विधि की तुलना में अधिक अनुशासन निर्धारित करता है। हठ योग व्यक्ति को कर्तव्यनिष्ट बनाता है और शारीरिक-मानसिक बल भी प्रदान करता है, जिसे आप अन्य हिंदू परंपराओं में नहीं पाते हैं। यह तरीक़ा केन उपनिषद में भी पाया गया है जहां आत्म-ज्ञान सिखाए जाने के बाद जो साधक पारंगत नहीं हुए थे उनके लिए प्रतीकात्मक ध्यान पढ़ाया गया है। सनातन धर्म में इस लक्ष्य को प्राप्त करने के अनेक मार्ग है। भगवत गीता में उनमें से कुछ को बताया गया है।

समयकाल

इसका समय-काल निश्चित नहीं है और इतना प्राचीन भी नहीं है, अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग समय-काल बताया है। कुछ का मानना है की यह ग्रंथ 17वीं शताब्दी से उपलब्ध है और कुछ विद्वानों जैसे जेम्ज़ मोलिंसन का मानना है कि यह 13–15वीं शताब्दी का है, यह माना जाता है कि यह वाराणसी, भारत में लिखा गया है जिसे बनारस या काशी भी कहा जाता है। हमारे अन्य ग्रंथो के सामने यह फिर भी नवीन है। जबकि शास्त्र 15वीं शताब्दी में लिखा गया था लेकिन इसका शिक्षण कालातीत और अनादी है।

ईशा वास्यमिदँ सर्वं — यह सम्पूर्ण जगत् परमचेतना (ईश्वर) द्वारा व्याप्त है।

जो अनेक उपनिषदो का उद्घोष है वहीं से इस संहिता का आरम्भ है। तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के समान यह प्रथम श्लोक इस संहिता का मूल है, जिस प्रकार ब्रह्मसुत्र के प्रथम ४ श्लोक, सूत्र के मूल है।

यह प्रारंभिक श्लोक वेदांत का श्रेष्ठ कथन है। यह हर उपनिषद सिखाता है, एक तो सर्वोच्च वास्तविकता का ज्ञान और दूसरा उस ज्ञान के माध्यम से अज्ञानता का विनाश। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कथन है, क्योंकि यह सत्य और मिथ्या का भेद बताता है। अतिसूक्ष्मता के कारण इस ज्ञान या चैतन्य को समझना आसान नहीं है। क्योंकि वेदांत एक दर्शन के रूप में केवल तभी काम करता है जब इसे आपको उपदेश द्वारा सिखाया जाए जो आपकी आध्यात्मिक साधना को और दृढ़ बनाता हैं। इस श्लोक के केवल एक वाक्य के साथ-“एकं ज्ञानं नित्यमाद्यन्तशून्यं”, उपनिषदों के उच्चतम ज्ञान को प्रकट किया गया है। इससे पता चलता है कि न्यूनतम शब्दों के साथ, एक सूक्ष्म और गहरा अर्थगर्भित विषय प्रकट किया जा सकता है।

जिस प्रकार वेदों का कोई लेखक नहीं होता उसी प्रकार शिव संहिता का आरम्भ “ईश्वरउवाच” से है। सनातन धर्म की परंपरा में यह महान मूल्य है कि ज्ञान हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार है और इसलिए आध्यात्मिक कार्यों पर कोई कॉपीराइट नहीं है।

अज्ञान, माया, मिथ्या, अविध्या या अव्यक्त अनित्य है

यह सारे पर्यायवाची शब्द है। “जो नित्य होने से भी अनित्य” — ऐसे विरोधाभास शब्द वेदांत दर्शन में ही पाए जाते है, जिसका सूक्ष्म स्तर पर ही इसका अर्थ समझा जा सकता है। जैसे केनोपनिषद २.१.२ में कहा गया है:

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ।। २.१.२ ।।

मैं नहीं मानता कि मैं ‘उसे’ (परतत्त्व को) भली प्रकार जानता हूँ, तो भी मैं जानता हूँ कि ‘वह’ मेरे लिए अज्ञात नहीं है। हम लोगों में जो ‘इसे’ जानता है, वह उस ‘परतत्त्व’ को जानता है; वह जानता है कि ‘यह’ उसके लिए अज्ञात नहीं है।

एक वेदांत साधक के लिए सबसे महत्वपूर्ण नित्य-अनित्य का भेद जानना है। शिव संहिता के प्रथम श्लोक का दूसरा भाग अविध्या के बारे में है। “यद्भेदोस्मिन्निन्द्रियोपाधिना वै ज्ञानस्यायं भासते नान्यथैव”, जिसका अर्थ है कि “इस जगत् में जो विविधता दिखाई देती है वह चेतना के अलावा कुछ भी नहीं है बल्कि ज्ञानन्द्रियों के भिन्न-भिन्न सीमित अनुभव है”।

अज्ञान उस सर्प की भाँति है जो रज्जु पर अध्यारोपित है। जब तक आपको सर्प दिखता रहेगा तब तक अज्ञान है, और जिस समय आपको यह ज्ञात हुआ की वह रज्जु है उसी क्षण सर्प भी लुप्त हो जाएगा। या यह कहा जा सकता है की सर्प का अस्तित्व कभी था ही नहीं। ठीक इसी प्रकार अज्ञान का अस्तित्व तब तक है जब तक ज्ञान का अभाव है, ज्ञान-अज्ञान दोनो एक साथ एक समय पर नहीं हो सकते। या तो रज्जु होगा या फिर सर्प।

गुरु परम्परा

जैसा की पहले बताया गया, वेदांत शास्त्र की महत्वपूर्ण कड़ी “गुरु परंपरा” है, जो ईश्वर से शुरू होकर, मध्य में भगवान श्री शंकराचार्य के साथ मेरे गुरु तक है। अतिसूक्ष्मता के कारण इस ज्ञान या चैतन्य को समझना, बिना गुरु उपदेश के, आसान नहीं है। इस संहिता के द्वितीय और तृतीय श्लोक में इसी गुरु परंपरा का वर्णन है। [श: २,३]

इस संहिता के माध्यम से ईश्वर अपना प्रेम भक्तों पर प्रकट कर रहे है। वेदांत साधक की षट् सम्पत्ति: शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान है। इनमें से साधक को शुरू से ही “श्रद्धा” को थामे रखना है। श्रद्धा ही है जो साधक को आत्म-ज्ञान तक लेकर जा सकता है। वेदांत के साधक को ईश्वर और गुरु पर अपनी श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। उनके वचनों को ध्यान-पूर्वक श्रवण कर, नित्य मनन और निधिध्यासन करना चाहिए। इसी प्रकार स्वयं को आत्म-ज्ञान के योग्य बनाना चाहिए.

आचार्यवान् पुरुषो वेद

गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है

नेती नेती

अब ईश्वर आगे कई कर्म-संबंधित धारणाओं का खंडन करते है जो मोक्ष प्राप्ति का दावा करते है। आज के युग के कई विद्वानों में विप्रलिप्सा के दोष बोहत अधिक हो चुके है। जो आजकल के युवाओं को भ्रमित ही नहीं करते, अपितु उनका मार्ग भी भटका देते है। आगे के शलोको में शिव-संहिता हमें इन्ही पौरुषेय वाक्य से सावधान कर रहा है। लौकिक वाक्य पौरुषेय (पुरुषकृत) होने के कारण पुरुषगत भ्रम, प्रमाद, विप्रलंभ (विप्रलिप्सा), करणापाटव आदि दोषों से युक्त होता है, अतएव पौरुषेय वाक्य प्रमाण नहीं होता।

श्लोक ४ से १६ में निम्नलिखित सभी करणो का खंडन किया गया है — मुक्ति / मोक्ष के संदर्भ में:

  • सत्य बोलना
  • तपस्या और ध्यान
  • शुद्धता का पालन
  • क्षमा करना
  • मन की शांति और सरलता
  • दान करना
  • पूर्वजों के लिए अनुष्ठान
  • निष्काम कर्म करना
  • वैराग्य भाव लाना
  • गृहस्थ के कर्तव्यों का पालन
  • अग्नि अनुष्ठान करना
  • मंत्र योग की साधना
  • तीर्थयात्रा करना

ऊपर दिए गए सभी कार्य कर्म के सिद्धांत के अंतर्गत आते है। और जहां कर्म है वहाँ पाप-पुण्य का चक्र है। यह सारे कर्म चित्त-शुद्धि के कारण हो सकते है परंतु मुक्ति के नहीं। कई विद्वान इसी भ्रम और द्वैतभाव का प्रचार करते है। कई प्रत्यक्षवादी और बुद्ध धर्म भी क्षणिकवाद या शून्यवाद की धारणा लिए लोगों को भ्रमित करते रहते है। इसी भ्रम के चलते अनेक साधक मुक्ति मार्ग से भटक जाते है और अपने अर्ध-ज्ञान से और भ्रम का विस्तार करते है।

एक साधक को इसका ज्ञान ले अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जब साधक धेर्ये, निष्ठा, विवेक और श्रद्धा से अनित्य की पहचान करता है तो स्वयं ही नित्य की ओर बढ़ता चला जाता है।

ईशोपनिषद् का भी यही उद्घोष है:

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ् सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ।। 1.1.11 ।।

जो विद्या और अविद्या — इन दोनोंको ही एक साथ जानता है वह अविद्यासे मृत्युको पार करके विद्यासे अमरत्व प्राप्त कर लेता है ।

अधिकारी

शिव-संहिता आगे साधक की अधिकारित्व गुण की व्याख्या कर रहे है। श्लोक 19 और भगवद गीता का श्लोक 18.67 एक ही बात बता रहे है की आत्मा-ज्ञान का अधिकारी कौन होना चाहिए और कौन नहीं होना चाहिए।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।

।।18.67।। यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए जो अतपस्क (तपरहित) है और न उसे जो अभक्त है। उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं कहना चाहिए जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है अर्थात् मुझ में दोष देखता है।।

वह महान जिज्ञासु भक्त (सुभक्त) होना चाहिए न कि आर्त-अर्थार्थी भक्त। सुभक्त जो जीवन में अपने लक्ष्य के बारे में स्पष्ट है। इस ज्ञान के साधक को यम और नियम का अवलोकन करना चाहिए या कम से कम उसके महत्व को समझता हो।

आत्मा-ज्ञान के लिए एक अधिकारी के पास ४ विशेष गुण होने चाहिए। साधन चतुष्टय:

  1. विवेक — नित्य-अनित्या का भेद
  2. वैराग्य — अनित्य वस्तु से
  3. षट् सम्पत्ति:
  4. शम — मान निग्रह
  5. दम — इंद्रिय निग्रह
  6. उपरति — आसक्तियों से मुक्त
  7. तितिक्षा — धैर्य
  8. श्रद्धा — गुरु और वेदों पर विश्वास
  9. समाधान — संशय रहित
  10. मुमुक्षुत्व — मोक्ष की इच्छा

यह गुण हर साधक में होना आवश्यक नहीं, परंतु जो मोक्ष की इच्छुक है उन्हें इन गुणो की वृद्धि करनी चाहिए। और जैसे जैसे आप वेदांत का अध्ययन करते रहेंगे वैसे-वैसे इनकी वृद्धि होती रहेगी।

मुमक्षुओं का आचरण

अधिकारी होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु एक मुमुक्षु का आचरण कैसा होना चाहिए उसके बारे में भी ध्यान देना है। शास्त्र-निर्मित आचरणों का श्रद्धापूर्वक पालन करने से वेदांत अध्ययन में सहायता मिलती है। कोई भी संहिता वेदों का वर्णन करे बिना अधूरा ही रहता है। शिव संहिता में भी वेदों के कर्मकांड और ज्ञानकांड का संक्षेप में विवरण दिया है। कर्म होगा तो संसार चक्र भी बना रहेगा। [श: २०-२९]

मुमक्षुओं को अपने नित्य कर्म के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के कर्म में रुचि नहीं दिखानी चाहिए। अन्य सारे प्रकार के कर्म, जिसका फल सुख या दुःख है, वह बंधन का ही हेतु है। भगवद गीता में कहा गया है:

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।

सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है, आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।

वैराग्य

नित्य पठन-पाठन से मुमुक्षु का चित्त शांत होता है और अनित्य वस्तु के प्रति उसका वैराग्यभाव उत्पन्न होता है। विवेक और वैराग्य यह दोनो एक ही पक्षी के दो पंख के समान है — आत्मा-ज्ञान के लिए इन दोनो की आवश्यकता रहती है। उस योगी को ना कर्म में रुचि रहती है और ना ही कर्म-फल में और इन दोनो का त्याग ही सन्यास है। [श ३०]

जब वह साधक कर्मकांड के कर्म और उससे मिलने वाले कर्मफलों का भली प्रकार विवेक द्वारा त्याग कर देता है तो योगी कहलाने योग्य होता है।[श ३१] कर्म का त्याग करना सब छोड़ कर सो जाना नहीं है, कर्म का त्याग अर्थात कर्म के प्रति साधक की आसक्ति का त्याग करना है। जैसे गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे है।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

हे धनञ्जय तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

हर जिज्ञासु साधक को मुमुक्षु की ओर और मुमुक्षु से योगी या ज्ञानी की ओर बढ़ते रहना चाहिए।

न्याय

शिव-संहिता के न्यायों में भी अद्वैत वेदांत की तरह कोई भेद नहीं है। यहाँ भी प्रसिद्ध न्यायों का उच्चारण हुआ है जैसे रज्जु-सर्प, सूर्य-प्रतिबिंब, स्वप्न-अवस्था, घटाकाश, सीपी-चाँदी और समुद्र-फेन।

जिस प्रकार जल से भरे पात्र में सूर्य के प्रतिबिंब अनेक दिखाई पड़ते है, उसी प्रकार इस जगत् में माया की उपाधि के कारण हम उस निर्गुण ब्रह्म का प्रतिबिंब ही देखते है। और जैसे सूर्य का प्रतिबिंब, सूर्य से भिन्न है वैसे ही ब्रह्म इस जगत् से भिन्न है।

एक और उदाहरण, जैसे स्वप्न जगत् में अनेक भेद उत्पन्न होते है और नींद से जाग जाने के बाद कुछ शेष नहीं रहता, उसी प्रकार जैसे ही ब्रह्म का ज्ञान होता है, अविद्या भी नहीं रहती। माया है तो अविद्या है अन्यथा सब कुछ वह बोध-स्वरूप ब्रह्म ही है।

साधक का मन-बुद्धि बाह्यगम्य होता है और ब्रह्म का ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म है। मन-बुद्धि से इस सूक्ष्म तत्व को समझना सरल नहीं होता है परंतु न्याय के सहारे इसे समझने में मदद मिलती है।

आत्माज्ञान की प्रक्रिया

साधक अपने आचरणों पर ध्यान दे और स्वयं को आत्मा-ज्ञान के योग्य बनाए। इसके लिए साधक को निष्ठापूर्वक श्रवण (गुरु वचनों को श्रद्धापूर्वक सुनना), मनन (उन वचनों पर विचार) और निद्धिध्यासन (ध्यान पूर्वक अर्जित ज्ञान का अनुभव) करना चाहिए। यही ज्ञान-मार्ग है। आगे शिव-संहिता अनेक प्रक्रियाओं के माध्यम से साधक का मार्ग दृढ़ करते है। यह प्रक्रियाएँ भी वेदांत शिक्षण में प्रसिद्ध है।

वाद

वाद दो प्रकार के है, पहला सृष्टि-दृष्टि वाद (सृष्टि हमेशा से थी और में इसे अनुभव कर रहा हूँ) और दूसरा है दृष्टि-सृष्टि वाद (में अनुभव कर रहा हूँ या मेरा अस्तित्व है इसीलिए यह सृष्टि मेरे समक्ष है)। इस प्रकार के वाद वाक्य शिव-संहिता में भी देखने को मिलते है। इसके प्रारंभिक भाग में सृष्टि-दृष्टि वाद और आगे दृष्टि-सृष्टि वाद का प्रयोग होता है।

इन दोनों वादों से साधक को दृश्य और द्रष्टा में भेद पता चलता है। इससे विवेक और वैराग्य में वृद्धि होती है।

अध्यारोप अपवाद

ब्रह्म के यथार्थ रूप का उपदेश देना अद्वैत मत के आचार्य का प्रधान लक्ष्य है। ब्रह्म स्वयं निष्प्रपंच है और इसका ज्ञान बिना प्रपंच की सहायता के किसी प्रकार भी नहीं कराया जा सकता। इसलिए आत्मा के ऊपर देहधर्मों का आरोप प्रथमत: करना चाहिए अर्थात्‌ आत्मा ही मन, बुद्धि, इंद्रिय आदि समस्त पदार्थ है। यह ‘प्राथमिक विधि अध्यारोप’ के नाम से प्रसिद्ध है।

अब युक्ति तथा तर्क के सहारे यह दिखलाना पड़ता है कि आत्मा न तो बुद्धि है, न संकल्प-विकल्परूप मन है, न बाहरी विषयों को ग्रहण करनेवाली इंद्रिय है और न भोग का आयतन यह शरीर है। इस प्रकार आरोपित धर्मों को एक-एक कर आत्मा से हटाते जाने पर अंतिम कोटि में उसका शुद्ध सच्चिदानंद रूप शेष रह जाता है और वही उसका सच्चा रूप होता है। इसका नाम है अपवाद विधि। ये दोनों एक ही पद्धति के दो अंश हैं।

समाधि

साधक को श्रवनम, मनन और निधिध्यासन कर अपने आपको नित्य आत्मा-चिंतन में लगाऐ रखना चाहिए। आत्मा अभेद, अद्वैत है — इसमें किसी भी प्रकार की कोई उपाधि नहीं है। नित्य-मुक्त ही समाधि की अवस्था है। और यही विचार शिव-संहिता में देखने को मिलता है।

माया

अंत में माया का वर्णन भी किया गया है। माया की दो शक्तियाँ है — आवरण (ज्ञान को डक देता है) और विक्षेप (भ्रम उत्पन्न करता है)। साधक को चाहिए नित्यानित्य का ज्ञान के भेद से विक्षेप का नाश करे और आवरन को काट डाले। और उस नित्य ब्रह्म में चित्त लगाए।

सारांश

इस तरह शिव संहिता इतना प्रचलित तो नहीं है परंतु इसकी विशेषताएँ अनेक है।

  • इसका प्रथम अध्याय केवल अद्वैत वेदांत है जो कहता है की जीव-ब्रह्म एक (तत्वमअसि) है।
  • अविध्या ही संसार / जगत् का कारण है।
  • ज्ञान से ही अविध्या का नाश संभव है।
  • उपनिषद, गीता और अन्य वेदांत शास्त्र का मूल है।
  • न्यायों का समावेष — उदाहरण में भी कोई भेद नहीं।
  • प्रवृत्ति ओर कर्म मार्ग का खंडन विस्तार से किया गया है।
  • वेदांत प्रक्रियों का उपयोग।

साधक फिर भी अगर समझने में असक्षम है तो आगे के हठ-योग अध्याय से चित्त-शुद्धि कर फिर प्रथम अध्याय का अध्ययन करे — मोक्ष की प्राप्ति निश्चय ही होगी।

हरिः ॐ।

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