Ghar (Home)
दरारें तो बोहोत है, हैं लतपत धूल के ढेरों से शीशे
उमंगों से भरी, खुशी से चेहेक्ति रुलाती ये बतलाती हमारी कोशिशें
कमरें दो, चारपाई एक, लेकर सपने अनेक रहते थे हम साथ
तकलीफों में भी मज़े से रहना, वही तो थी जीने की बात
कभी जब रिश्तेदार आते, मिठाइयां और चीज़े लाते
सोचते न थे क्यों आये क्या लाये, बल्कि खुश थे के वे आएं
सड़के दिखाना, टूटी मंज़िलें और झील दिखाना
गोले वाले से रंगीन गोले लेना और उसे लुभाना
रात को चटाई बिछाके, छत पे लेटे आकाश में तारे गिनना
दूसरे पहर उठके वही सारी चीज़े फिर दोहराना
सादगी से भी मज़े से रहना, वही तो थी जीने की बात
दिन बदले, वक़्त बदला, जगाएं बदली और उसके साथ हम भी बदले
अब पलंग न हो तो नींद नहीं आती, कमरे ज़्यादा न हो तो मानो गरीबी लग जाती
रिश्तेदार, हाँ वही हमारे रिश्तेदार कब जाएंगे उसी घडी की चर्चा होगी
उनके आने की खुशी तो दूर की बात, क्या लाये साथ वही देख उनकी खातिरदारी होगी
खैर… सब बदला, लोग बदले न बदला वह टुटा पुराना घर
वहां की सारी यादें आज भी ज़िंदा है, नहीं भुला मेरे बचपन का घर
सोचता हूँ कभी लौट आऊं और फिर जिलू, जिलू उन बीतें पलों को दोबारा
लेकिन जानता हूँ वह घर, घर था सिर्फ हमसे, सबके साथ था वह प्यारा हमारा
उन तकलीफों और सादगी से भरा, था वह सारा जहाँ हमारा
दरारें तो बोहोत है, हैं लतपत धूल के ढेरों से शीशे
उमंगों से भरी, खुशी से चेहेक्ति रुलाती ये बतलाती हमारी कोशिशें
कमरें दो, चारपाई एक, लेकर सपने अनेक रहते थे हम साथ
तकलीफों में भी मज़े से रहना, वही तो थी जीने की बात