अचार विचार
उन दिनों विचार अचार की तरह होते थे
बड़े चाव से बनते और हज़म होते थे
नया सा कुछ हर रोज़ बरनी में डलता था
एक बड़े चम्मच से बार बार घुलता था
वो राज़ की बात जो कि पहचान होती थी
मैके की चिट्ठीयों में बयान होती थी
संभाल के रखो तो साल साल टिकता था
बस गीले चम्मच से पानी फिर सकता था
स्वाद तो हर साल का वैसा ही रहता था
पिछले साल बेहतर था, कोई कहता था
मोहल्ले की नानी का यूँ दिन कटता था
कटोरियों में भर कर जब अचार बँटता थे
आज कल सभी अचार दुकान में बिकते हैं
आधी भरी शीशियों में अक्सर फिकते हैं
विचारों को भी लोग इस तरह देखते हैं
ऊँगली घुमाकर के सौ जगह फेंकते हैं
अखबारों के जैसे एक नज़र तकते हैं
बिना पढ़े कइयों पे अँगूठे ठोकते हैं
थोड़ा सा चखने से वज़न नहीं बढ़ता है
दिन के सौ “सुप्रभात!” मगर कौन पढ़ता है
किसी के पास कहने को बाकी नहीं रहा
किसी महानुभाव ने जो पहले नहीं कहा
आज भी विचार अचार की तरह होते हैं
हासिल सब को हैं पर किसे हज़म होते हैं