रेंगते पल

Ambarish Chaudhari
zehn
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1 min readAug 27, 2018

टूथ ब्रश को मुँह में ठूसे हुए
मेरी सुबह आँखे मल रही थी

पड़ोस के कुकर की सिसकियाँ अब
रेडियो पर हावी हो रही थी

चाय आज फिर ज़्यादा उबल गई
अख़बार में फिर बकवास ही थी

दफ़्तर के रास्ते में भीड़ थी
धूप चार दिन से खिली नही थी

बेतुके चुटकुले, खोखली हँसी
मेज़ पर मक्खियाँ रेंग रही थी

मैं चाय के बहाने निकल पड़ा
पर तलब शराब की हो रही थी

बेफिक्रे वो दिन मगर अब न थे
दिन दिन नौकरियाँ छूट रही थी

सिगरेट से काम चल सकता था
पर उस की अभी आदत नही थी

ठेले पर पकौड़े तल रहे थे
और मुझे भूख भी लग रही थी

जिस कागज़ की पुड़िया में बाँधे
मेरे दफ़्तर की फ़ाइल ही थी

बड़े दिनों बाद मैं मुस्कुराया
दोपहर उजली सी लग रही थी

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Ambarish Chaudhari
zehn
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making my way through mist of magic over lanes of logic