विश्वरूपी वृक्ष
आम्रवृक्ष के असंख्य फलों में से एक फल वो भी था
आम फलों का राजा तो है पर यहाँ सब ही आम थे
अपनी अवस्था में मग्न, समय और संसार से परे
पुष्पावस्था से ही वो थोड़ा भाग्यशाली रहा था
उस का हर दिन पवन, सूरज,पानी से परिपूर्ण रहता,
पक्षी, गिलहरीयों जैसी प्यारी बलाओं से बचता,
पत्तों के आँचल में छुप कर शिशुवत वो सोता रहता
धीरे धीरे यौवन की लाली उस पर छाने लगती
मनमोहक कोई सुगंध अब उससे भी आने लगती
बाहर के मीठेपन से पर गुठली की कड़वाहट ही
उस को ज्यादा अपनी सी पहचानी सी लगती रहती
परिपक्व हो कर भी एक अज्ञात अधूरेपन में वो,
अपनी न्यूनता में मग्न, समय और संसार से परे
भँवरो की छेड़छाड़ और पवन की मदमस्त सीटियाँ,
या सरसराहट में अचानक खिलखिला उठती डालियाँ
इन सब से सिकुड़कर अपनी नीरस आत्मा पर उसने,
धीरे धीरे मोटा कोई एक कवच सा बना लिया
फिर क्या गिरना, क्या कटना, क्या शोषण, कैसी उपेक्षा,
अपनी अवस्था में नग्न, समय और संसार से परे
एक दिन उस का कवच किसी पलक की तरह खुलने लगा
कम्बल के इक कोने से जैसे ज़मीन पर पैर रखा,
किसी गतिशील रेल से मानो किसी ने हाथ खींचकर,
समय की लम्बी पटरियों के रस्ते इस जगह ला रखा
एक उगता अंकुर पल में विश्वरूपी वृक्ष बन गया,
अपनी व्यवस्था में मग्न, समय और संसार से परे