तुम चरस थीं,
मुझे बिलकुल मालूम ना था,
हाँ तुम में कुछ तो,
काला सम्मोहक जादू था,
जो तुम तक खीचा लाया मुझे,
एक बार तुमसे क्या मिले,
हाय तुम्हारी गन्दी लत लग गई,
बहुत ख़तरनाक तलब पड गई,
जो कमबख़्त अब छूटतीं ही नहीं,
अब तुम ही बताओ मै करूँ
तो आखिर क्या करूँ।।
ससुरा अब दिन-रात,
तुम्हारा ही नशा आँखो पे,
काली गुप अंधेरी रात सा
छाया रहता है।।
कातिल जहरीला हो गया हूँ मै,
तुम्हारे लिए किसी पर भी,
झट से फनफना बैठता हूँ,
साँप सा डसने लगता हूँ,
फिर चाहे वो जो भी हो।।
इस चरस की पुड़िया के आगे,
ना तो दीनानाथ का होश है,
ना ही घरबार और दुनिया का,
ओह, ये तो दोनो ही जहान छूटे हमसे,
नर और नारायण सबके सब
आज बुरी तरह नाराज है।।
हाँ, तुम मेरी रगो में
दौड़ रही हो धडाधड,
मेरे लहू में समा गई हो,
और ये लहू अब आंखों सें,
टपक रहा है टप-टप टप-टप।।
अब तो मेरे होश को भी होश नहीं,
मदहोश बेहोश निर्लज्ज अधमरा सा मैं,
कुछ आधी खुलीं, कुछ आधी बंद आँखे,
बंजर सी मेरी उबड-खाबड पथरीली साँसे।।
भिगमंगो फकीरों जैसे हालात,
पूरी की पूरी दुनिया से जैसे
टूट गया हो सब रिशता, बंधन, नाता,
ना अब किसी से यारी,
और ना ही किसी से बैर है दिल में,
सब सवच्छ, निश्चल, धवल, सुन्दर, शाश्वत।।
सनकी पागलों जैसी हरकते,
हाँ वहीं तुम्हारे सनकी ख्वाब,
और तुम्हारे पागल सपने, सच्ची,
पूरा का पूरा,
पागलपन ही तो है,
सब हँसते भी है मुझपे,
और कुछ की नम हो जाती है आँखे
देखकर मेरी दीनदशा।।
सोना-चाँदी-रूपया-दौलत,
सब फीका है, मिथ्या है, सब पत्थर है,
अब सारे सच झूठ है,
और एक ही झूठ कि सिर्फ तुम ही तुम हो,
मेरा सच्चा नशीला सपना है,
एक तुम ही मेरा नशीला सपना हो।।
और अब मै नशे में थक गया हूँ,
मै अब काली लम्बी अनवरत नींद में,
जी भर के भरपूर सोना चाहता हूँ,
तुम्हारे पास सिकुड़कर,
तुम्हारे बदन के नही,
तुम्हारी रूह के किसी कोने में।।
पथरा गई आँसुओं की नदियाँ,
अब मै जी भर के रोना चाहता हूँ
मै तुम्हारी गोद मे सर रखकर,
इस रंगीन, सुनहरी दुनिया को
छोडना चाहता हूँ।।
और हाँ अब तंग आ गया मै,
इस रोज-रोज के खूबसूरत
कभी खतम ना होने वाले बबाल से,
फिर भी इस चरसी चरस मे,
हाँ हाँ सिर्फ और सिर्फ,
नशीली सुरभ में,
रोजाना बहकना चाहता हूँ,
बार-बार खोना चाहता हूँ।।
हाँ तुम एक नशीली चरस हो
मै एक नादान सा भोला चरसी,
और मुझे तुम्हारी गन्दी लत लग गई है,
अब तुमही बताओ,
मै करूँ तो आखिर क्या करूँ
मै करूँ तो आखिर क्या करूँ।।