धरतीपुत्र की पीड़ा

Vineeta Tewari
my tukbandi
Published in
2 min readAug 12, 2020

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देख सुनहरी अपनी फसलें
मन किसान का पुलक उठा है,
उसके अथक परिश्रम का अब
विधना ने प्रतिदान दिया है,
इसे बेच कर इसी वर्ष मै
अब वह कर्ज चुकाऊंगा,
तदन्तर बेटी ब्याहूंगा
पुत्रवधू भी लाऊंगा,
फिर भी कुछ धन शेष रह गया
तो अपनी जर्जर कुटिया पर
छप्पर नया डलवाऊँगा,
सोच-सोच यह भूमि पुत्र का मन
मयूर सा थिरक उठा है |

हा ! यह क्या परिणाम हो रहा
विधाता क्या वाम हो रहा,
देख घुमड़ती काली बदली
उसका मन अशांत हो रहा,
अभी फसल भी नहीं कटी है
खलिहाने भी रिक्त पड़ी हैं,
तभी अचानक बिजली चमकी
बड़ी जोर से बादल गरजे
विपदा ओले रूप में बरसी,
फिर जल का अतिरेक हो गया
सारा जल थल एक हो गया,
फसलें सारी नष्ट हो गई
जल ही में समाविष्ट हो गई,
यह प्रकृति का शाप हो गया
घनघोर परिश्रम नाश हो गया,
दीन कृषक यह सोच रहा था
खड़ा खड़ा ही चौंक रहा था,
मेहनत को बनाकर अनुचर
जीता था यह समर भयंकर,
अब फसलें कटनी को थी
नाव पार लगने को थी,
लक्ष्य हमारा दूर नहीं था
पर विधि को मंजूर नहीं था,
शेष नहीं कुछ अब जीवन में
प्राण नहीं है दुर्बल तन में,
अब कैसे जी पाऊंगा
कैसे कर्ज चुकाऊंगा,
यही सोच उस धरा पुत्र ने
पहला कायर कर्म किया,
जीवन अमोल है भूल गया
फांसी का फंदा झूल गया |

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