[अप्रैल 2008]
बस 15 मिनट ही तो बचे थे. सो भी सकता था वो, पर फिर उसकी ‘कम्प्लीटनेस’ की सनक का…
[कारगिल युद्ध के दौर में ]
बैठा था निशब्द, निर्वाक कि तभी एक हुंकार सुनी,‘युद्धक्षेत्र में जाना तुमको’- उसने एक पुकार…
[ग्रीष्म 2004]
इस कागज़ के पन्ने पर,अंधेरी सी इस रात में,घरवालों से छुपके,आखिर हिम्मत करके,तुम्हे ये ख़त लिख रहा हूँ.इसे…
[दिसंबर 2005]
सुनो मौरोमी…देखो मैं भले ही अजनबी हूँ,पर तुम अब अजनबी नहीं मेरे लिए;पिछले कुछ दिनों में कितना…
[2006] — ये कविता उन शोषित नारियों के कृन्दन को महसूस करने का एक प्रयास है, जिनका जीवन पुरुष प्रधान रूढ़िवादी समाज के हाथ की कठपुतली…
[2003–05]
हम जो अब भी ज़िंदा है, तो ज़िंदा कुछ यूँ हैं,कि तमन्नाएँ गुजारिश करती हैं, हम मोहलत देते जाते…
[फ़रवरी 2008]
मेरे साथ ही,यहीं कहीं पास में,मैं रहता हूं.
[वसंत 2007] — कॉलेज के अंतिम दिनों के दौरान लिखी गई यह ग़ज़ल एक कल्पित व्यक्ति की बानगी है, जो कॉलेज छोड़ने के…
[2005]
होठों में हँसी,दिल में कहीं इक,दरार तो है.
[नव-वर्ष 2008]
नया साल, इसमें नया क्या है?क्या ही हो सकता है नया!नया तो पल है,और पलों की मसनद पर ये सपनीली दुनिया…
[ग्रीष्म 2009]
हम लोग तो पानी कोऊपर से पीते हैंनीचे से बहाते हैंऔर कुछ हमारे आका हैंजो इसमें चीनी घोल केलाखों…
[अक्टूबर 2008]
चिहुँकना फिर फिर से,और सिसकना सारी सारी रात फिर…ज़रा सा खटका लगा नहीं कि ढह गया…
[मार्च 2008]
मुस्कुरा ही पड़ा था वो.
[दीवाली 2007]
[मई 2008]