ज़ख़्म कभी सिले नहीं, फिर भी कोई गिले नहीं,थोड़ा बंजर रहते हैं,ऐसा नहीं की कभी खिले नहीं, हरे कितने हैं वो बताएँगी जिनको हम कभी मिले नहीं!
कुछ मिलने के मौक़े टाले जाएँगेवहीं पर सारे उजाले जाएँगे
हमीं से है तुम्हारा बहिश्त रोशनहमीं सब से पहले निकाले जाएँगे
तू ख़ामोश है, ठीक है, पर सुनतुमसे बिछड़े तो हाथों से निवाले जाएँगे
अपनी इच्छाओं का मारा बैठा हूँ, दुनिया जीत के, इश्क़ से हारा बैठा हूँ,अपने घर की रोटियाँ नसीब हुई नहीं, दूसरों का बन सहारा बैठा हूँ,एक बार तो निकल गया था इस जाल से, कल से तेरी यादों में दोबारा बैठा हूँ, थोड़ा बहुत होता तो काम चल जाता, डर ये है की हिज्र में सारा का सारा बैठा हूँ!
बग़ावतों से वास्ता नहीं है जिन्हें,मौसमों का इल्म नहीं है उन्हें
हर बारिश इश्किया नहीं होतीकुछ तो हों की बस सड़कें धुलें
कह सकता नहीं, आँखें तुम नहीं पढ़तीराज आख़िर खुलें तो कैसे खुलें ?
जब उसको रंग लगाते होंगेरंग ख़ुद भी इतराते होंगे
इस महीने से कुछ आस नहींरास लीला भी अब रास नहींबस एक जन्मदिन आता हैबाक़ी फ़रवरी में कुछ ख़ास नहीं